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________________ ५७४ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६९-४७०-४७१ टीका- बहुरि यथाख्यात संयम है; सो निश्चय करि मोहनीयकर्म के सर्वथा उपशम ते वा क्षय ते हो है; असे जिनदेवनि करि कह्या है । तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । बिदियकसायुदयेण य, असंजमो होदि णियमेण ॥४६॥ तृतीयकषायोदयेन च, विरताविरतो गुणो भवेयुगपत् । द्वितीयकषायोदयेन च, असंयमो भवति नियमेन ॥४६९।। टीका - तीसरा प्रत्याख्यान कषाय का उदय करि युगपत् विरत - अविरतरूप संयमासंयम हो है । जैसे तीसरे गुणस्थान सम्यक्त्व - मिथ्यात्व मिले ही हो है। तैसे पंचमगुणस्थान विर्षे संयम - असंयम दोऊ मिश्ररूप हो हैं । तातै यह मिश्र संयमी है । बहुरि दूसरा अप्रत्याख्यान कषाय के उदय करि असंयम हो है। असे संयम मार्गणा के सात भेद कहे। संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्म। जीवो समुन्वहतो, सामाइयसंजमो होदि ॥४७०॥ संगृह्य सकलसंयममेकयममनुत्तरं दुरवगम्यम् । जीवः समुद्वहन, सामायिकसंयमो भवति ।।४७०॥ टीका - समस्त ही व्रतधारणादिक पंच प्रकार संयम कौं संग्रह करि एकयमं कहिए मै सर्व सावध का त्यागी हो; असा एकयमं कहिए सकल सावद्य का त्यागरूप अभेद संयम; सोई सामायिक जानना । कैसा है सामायिक ? अनुत्तरं कहिए जाके समान और नाही, संपूर्ण है। बहुरि दुरवगम्यं कहिए दुर्लभपने पाइए है, सो असे सामायिक को पालता जीव सामयिक संयमी हो है। छेत्तण य परियायं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो, छेदोवट्ठावगो जीवो ॥४७१॥२ १ पट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा स. १८७। २. पटपडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा स. १८८।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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