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________________ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३५६-३८७-३८८ ५३२ ] मरणदव्ववग्गणाण, वियप्पारणंतिमसमं खु धुवहारो। अवरुक्कस्सविसेसा, रूवहिया तस्वियप्पा हु ॥३८६॥ मनोद्रव्यवर्गणानां, विकल्पानंतिमसम खलु ध्रुवहारः। अवरोत्कृष्टविशेषाः, रूपाधिकास्तद्विकल्पा हि ॥३८६॥ टीका - मनोवर्गणा के जितने भेद है, तिनिको अनंत का भाग दीजिए, एक भाग का जितना प्रमाण होइ, सो ध्रुवहार का प्रमाण जानना । ते मनोवर्गरणा के भेद केते हैं, सो कहिए है - मनोवर्गणा का जघन्य प्रमाण को मनोवर्गणा का उत्कृष्ट प्रमाण में सौ घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहै, तीहिविर्ष एक अधिक कीएं, मनोवर्गणा के भेदनि का प्रमाण हो है । प्रागै सम्यक्त्व मार्गणा का कथन विष तेईस जाति की पुद्गल वर्गणा कहेगे । तहां तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, कार्माणवर्गरणा इत्यादिक का वर्णन करैगे; सो जानना । इस मनोवर्गणा का जघन्य, भेद अर उत्कृष्ट भेद का प्रमाण दिखाइए है - अवरं होदि अरणंतं, अरणंतभागेरण अहियमुक्कस्सं । इदि भणभेदाणंतिमभागो दन्वम्मि धुवहारो ॥३८७॥ अवरं भवति अनंतमनंतभागेनाधिकसुत्कृष्टं । इति मनोभेदानंतिमभागो द्रव्ये ध्रुवहारः ॥३७॥ टीका - मनोवर्गणा का जघन्य भेद अनंत प्रमाण है । अनत परमाणूनि का स्कधरूप जघन्य मनोवर्गणा है । इस प्रमाण को अनत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना उस जघन्य भेद का प्रमाण विषै जोडे, जो प्रमाण होइ, सोई मनोवर्गणा का उत्कृष्ट भेद का प्रमाण जानना । इतने परमाणनि का स्कधरूप उत्कृष्ट मनोर्वगणा हो है; सो जघन्य ते लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत पूर्वोक्त प्रकार जेते मनोवर्गणा के भेद भए, तिनके अनंतवे भागमात्र इहां ध्र वहार का प्रमाण है । अथवा अन्यप्रकार कहै है - धुवहारस्स पमारणं, सिद्धाणंतिमपमाणमत्तं पि । समयपबद्धणिमित्तं, कम्मणवग्गाणगुणा दो दु ॥३८॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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