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________________ गोम्मटसार जीवकाण्डमाया ३८३-३०४ ५३० असंख्यात पाइए है; तिनि सबनि कौं जान है । वहुरि इस प्रमाण ते एक, दोय आदि जिस स्कंधनि के बधते प्रदेश होंहि तिनिको तो जाने ही जान, जातै मुदम को जाने स्थूल का जानना सुगम है । बहुरि जो पूर्व जघन्य अवधिज्ञान संवधी द्रव्य कह्या था, तिसकी अवगाहना का प्रमाण, तिस जघन्य अवधि का क्षेत्र का प्रमाण के असंख्यातवे भागमात्र है, तथापि धनांगुल के असंख्यातवे भागमात्र ही है । अर वाकै भुज, कोटि, वेध का भी प्रमाण सूच्यंगुल के असंख्यातवे भागमात्र है । असंख्यात के भेद घने हैं, तातै यथासभव जानि लेना। आवलिअसंखभागं, तीदभविस्सं च कालदो अवरं । ओही जाणदि भावे, कालअसंखेज्जमागं तु ॥३८३॥ पावल्यसंख्यभागमतीतभविष्यच्च कालतः अवरम् । अवधिः जानाति भावे, कालसंख्यातभागं तु ॥३८३॥ टीका - जघन्य अवधिज्ञान है, सो काल तै आवली के असख्यातवे भागमात्र अतीत, अनागत काल को जान है । बहुरि भाव ते आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल प्रमाण का असंख्यातवां भाग प्रमाण भाव, तिनको जाने है । भावार्थ - जघन्य अवधिज्ञान पूर्वोक्त क्षेत्र विष, पूर्वोक्त एक द्रव्य के प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण अतीत काल विष वा तितना ही अनागत काल विर्ष जे आकाररूप व्यजन पर्याय भए, अर होहिगे तिनको जानै है, जातै व्यवहार काल के अर द्रव्य के पर्याय ही की पलटन हो है। बहुरि पूर्वोक्त क्षेत्र विर्ष पूर्वोक्त द्रव्य के वर्तमान परिणमन रूप अर्थ पर्याय है । तिनि विर्षे प्रावली का असंख्यातवा भाग का असख्यातवा भाग प्रमाण, जे पर्याय, तिनि को जान है । जैसे जघन्य देशावधि ज्ञान के विषय भूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि की सीमा - मर्यादा का भेद कहि । आगे तिस अवधिज्ञान के जे द्वितीयादि भेद, तिनिकौ च्यारि प्रकार विषय भेद कहै है - अवरद्दव्वादुपरिमदव्ववियप्पाय होदि ध्रुवहारो। सिद्धाणंतिमभागो, अभव्वसिद्धादणंतगुणो ॥३८४॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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