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________________ सम्यग्ज्ञानचन्तिका भाषाटोका 1 [ ४६ टीका - एक घाटि एकट्ठी प्रमारण समस्त श्रुत के अक्षर कहे तिनिको परमागम विष प्रसिद्ध जो मध्यम पद, ताके अक्षरनि का प्रमाण सोला सै चौतीस कोडि तियासी लाख सात हजार आठ सै अठ्यासी, ताका भाग दीए, जो पदनि का प्रमाण आवै तितने तो अंगपूर्व संबंधी मध्यम पद जानने । बहुरि अवशेष जे अक्षर रहे, ते प्रकीर्णकों के जानने । सो एक सौ बारह कोडि तियासी लाख अठावन हजार पाच इतने तो अंग प्रविष्ट श्रुत का पदनि का प्रमाण आया । अवशेष आठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सै पिचहत्तरि अक्षर रहे, ते अंगबाह्य प्रकीर्णक के जानने । असें अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य दोय प्रकार श्रुत के पदनि का वा अक्षरनि का प्रमाण हे भव्य ! तू जानि। आगे श्री माधवचन्द्र विद्यदेव तेरह गाथानि करि अंगपूर्वनि के पदनि की संख्या प्ररूप हैं - आयारे सुद्दयडे, ठाणे समवायणानगे अंगे। तत्तो विक्खापण्णत्तीए पाहस्स धम्मकहा ॥३५६।। प्राचारे सूत्रकृते, स्थाने समवायनामके अंगे। ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धर्मकथायाम् ॥३५६॥ टीका - द्रव्य श्रुत की अपेक्षा सार्थक निरुक्ति लीएं, अंगपूर्व के पदनि की संख्या कहिए है । जातै भावश्रुत विष निरुक्त्यादिक संभवै नाही । तहां द्वादश अगनि विष प्रथम ही आचारांग है । जातै परमागम जो है, सो मोक्ष के निमित्त है । याही तैं मोक्षाभिलाषी याकौं आदरे है। तहा मोक्ष का कारण संवर, निर्जरा, तिनिका कारण पंचाचारादि सकल चारित्र है । तातै तिस चारित्र का प्रतिपादक शास्त्र पहिले कहना सिद्ध भया । तीहि कारण ते च्यारि ज्ञान सप्त ऋद्धि के धारक गणधर देवनि करि तीर्थंकर के मुखकमल ते उत्पन्न जो सर्व भाषामय दिव्यध्वनि, ताके मुनने ने जो अर्थ अवधारण किया, तिनिकरि शिष्य प्रति शिप्यनि के अनुग्रह निमित्त दादगागरूप श्रुत रचना करी। तीहिं विर्ष पहिले आचाराग कह्या । सो आचरन्ति कहिए समस्तपनं मोन मार्ग को आराध हैं, याकरि सो आचार, तिहिं प्राचाराग विपं अंसा कथन है - जो कैसे चलिए? कैसे खडे रहिये ? कैसे वैठिये ? कैसे सोइए ? कैसे वोनिा? में
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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