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________________ ४७८ ] | गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३२ का गुणकार था, तिस विषै प्रक्षेपक प्रक्षेपक संबंधी ऋण संख्यात गुणा घाटि है । ताकौ घटावने के अर्थ बहुरि किचित् ऊन कीएं, जो साधिक जघन्य कौं दोय बार किचिदून तेरह का गुणकार अर छह हजार का भागहार भया । सो इतना प्रमाण पूर्वोक्त दूणां लब्ध्यक्षर विषै जोडें, साधिक दूरगा हो है । औसे प्रथम तो संख्यात भा '' वृद्धि युक्त जे स्थान, तिनि विषै उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थाननि का सात दशवां भाग प्रमाण स्थान पशुलि वृद्धि पर्यंत भए लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा हो है । बहुरि तिसही का इकतालीस छप्पनवां भाग प्रमाण स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यंत भएं, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा हो है । बहुरि आगे भी संख्यात ( भाग) वृद्धि का पहिला स्थान तें लगाइ उत्कृष्ट सख्यात मात्र स्थाननि का तीन चौथा भाग मात्र स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यत भएं, लब्ध्याक्षर ज्ञान दूर्गा हो है । बहुरि तैसें ही संख्यात वृद्धि का पहिला स्थान तै लगाइ, उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थान प्रक्षेपक वृद्धिपर्यंत भएं, लब्ध्यक्षरज्ञान दूरगा हो है । - प्रश्न - जो साधिक जघन्य ज्ञान दूरगा भया सो साधिक जघन्य ज्ञान ती पर्यायसमास ज्ञान का मध्य भेद है, इहां लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा कैसे कह्या है ? ताकां समाधान - जो उपचार करि पर्यायसमास ज्ञान के भेद को भी लब्ध्यक्षर कहिए । जाते मुख्यपने लब्ध्यक्षर है नाम जाका, जैसा जो पर्याय ज्ञान, ताका समीपवर्ती है । भावार्थ - इहां ग्रैसा जो लब्ध्यक्षर नाम ते इहां पर्यायसमास का यथासभव मध्यभेद का ग्रहण करना । बहुरि चकार करि गत्वा कहिए असे स्थान प्रति प्राप्त होड, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है, सा अर्थ जानना । एवं असंखलोगा, अरणक्खरप्पे हवंति छट्ठारणा । ते पज्जायस मासा, श्रक्खरगं उवरि बोच्छामि ॥ ३३२ ॥ १ एवमसंख्यलोकाः, अनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । ते पर्यायसमासा अक्षरगमुपरि वक्ष्यामि ॥३३२॥ १६, पृ २२ की टीका ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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