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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] करि आहार ग्रहण करै । पर उत्कृष्ट योगनि की वृद्धि करि बधै। बहुरि यथायोग्य उत्कृप्ट योगनि को बहुत वार प्राप्त होइ, जघन्य योगस्थाननि को बहुत बार प्राप्त न होइ । बहुरि संक्लेश परिणामरूप परिणया यथायोग्य मदकषायरूप विशुद्धता करि विशुद्ध होड, पूर्वोक्त प्रकार अधस्तन स्थितिनि के निषेक का जघन्यपद करें। उपरितन स्थितिनि के निषेक का उत्कृष्ट पद करै है। जैसे भ्रमण करि, बादर त्रसपर्याय विषै उपज्या, तहा भ्रमता तिस जीव के पर्याप्त पर्याय थोरे, अपर्याप्त पर्याय बहुत भएं, तिनिका एकठा कीया पर्याप्तकाल बहुत भया । अपर्याप्तकाल थोरा भया । जैसे भ्रमण करि पीछला पर्याय का ग्रहण विर्ष सातवी नरक पृथ्वी के नारक जे विले, तिनि विष उपज्या। तहां तिस पर्याय के ग्रहण का प्रथम समय विष यथायोग्य उत्कृष्ट योग करि पाहार ग्रहण कीया । बहुरि उत्कृष्ट योगवृद्धि करि बध्या। वहरि थोरा अतर्मुहर्त काल करि सर्व पर्याप्ति पूर्ण कीए । बहरि तिस नरक विषै तेतीस सागर काल पर्यत योग आवश्यक पर संक्लेश आवश्यक को प्राप्त भया । असे भ्रमण करि आयु का स्तोक काल अवशेष रहै, योगयवमध्य रचना का ऊपरला भागरूप योगस्थान विर्षे अंतर्मुहुर्त काल पर्यंत तिष्ठि, अर पीछे जीव यवमध्य रचना की अंत गुणहानिरूप योगस्थान विर्षे आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल पर्यत तिष्ठि आयु का अंत ते तीसरा, दूसरा समयनि विर्षे उत्कृष्ट सक्लेश को पाइ; अत समय विषै उत्कृष्ट योगस्थान कौं पाइ, तिस पर्याय का अत समय विषै जीव तिष्ठ्या ताकै कार्माण शरीर का उत्कृष्ट सचय होइ है । असे औदारिक आदि शरीरनि का का उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री का विशेष कह्या ।। भावार्थ - पूर्वं उत्कृष्ट संचय होने विष छह आवश्यक कहे थे; ते इहां यथासभव जानि लेना । पर्याय सबंधी काल तौ भवाद्ध है । पर आयु का प्रमाण सो आयुष्य है । यथासंभव योगस्थान होना, सो योग है । तीव्र कषाय होना सो संक्लेश है। ऊपरले निषेकनि के परमाणू नीचले निषेकनि विषै मिलावना, सो अपकर्णरण है । नीचले निषेकनि का परमाणू ऊपरि के निषेकनि विषै मिलावना; सो उत्कर्णरण है । जैसै ए छह आवश्यक यथासभव जानने । बहुरि एक प्रश्न उपजै है कि एक समय विष जीव करि बाध्या जो एक समयप्रबद्ध, ताके आबाधा रहित अपनी स्थिति का प्रथम समय तै लगाइ, अत समय पर्यत समय-समय प्रति एक-एक निषेक उदय आवै है। पूर्व गाथा विष समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का उदय का प्रावना कैसे कह्या है ?
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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