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________________ ३८६ । [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३ दीएं, चय का प्रमाण एक, याको दोगुणहानि करि गुणे, प्रथम निषेक का प्रमाण सोलह, तातै ऊपरि अपना एक-एक चय घटता होइ । एक घाटि गच्छ प्रमाण चय घटै, एक अधिक गुणहानि करि गुरिणत स्वकीय चय मात्र स्थिति के अंतनिषेक का प्रमाण नव हो है। जैसे द्वितीयादिक अतगुणहानि पर्यत विष द्रव्यादिक है। ते गुणकाररूप हानि का अनुक्रम लीए है । तातै गुणहानि औसा नाम सार्थक जानना । इहां तर्क - जो प्रथम गुणहानि विष तौ पूर्व गुणहानि के अभाव ते गुणहानिपना नाही? ताका समाधान - कि मुख्यपनै ताका गुणहानि नाम नाही है । तथापि ऊपरि की गुणहानि को गुणहानिपना को कारणभूत जो चय, ताका हीन होने का सद्भाव पाईए है । तातै उपचार करि प्रथम को भी गुणहानि कहिए । गुणकार रूप घटता, जहा परिमाण होइ, ताका नाम गुणहानि जानना । औसै एक-एक समय प्रबद्ध की सर्वगणहानिनि विष प्राप्त सर्वनिषेकनि की रचना जाननी । बहरि असे प्रथमादि गुणहानिनि के द्रव्य वा चय वा निषेक ऊपरि-ऊपरि गुणहानि विषे आधे-आधे जानने । इतना विशेष यह जानना-जो अपना-अपना गुणहानि का अंत निषेक विष अपना-अपना एक चय घटाएं, ऊपरि-ऊपरि का गुणहानि का प्रथम निषेक होइ, जैसे प्रथम गुणहानि का अत निषेक दोय सै अठ्यासी विषै अपना चय बत्तीस घटाएं, द्वितीय गुणहानि का प्रथम निषेक दोय सौ छप्पन हो है । जैसे ही अन्यत्र जानना । * अंक संदृष्टि करि निषेक की रचना के प्रथम गुणहानि द्वितीय गुणहानितृतीय गुणहानि चतुथ गुणहानि पचम गुणहानि पष्ठम गुणहा १४४ " ७२ १६० . . १७६ M १६२ २०८ ४१६ rrrrrr m m १०४ ४४८ २२४ ११२ ४८० २४० २५६ १२० ५१२ १०८ - - ड : ३२०० १६०० ८०० ४००
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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