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________________ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५०-२५२ उक्कस्सद्विदिचरिमे, सगसगउक्कस्ससंचओ होदि । पणदेहाणं वरजोगादिससामग्गिसहियारणं ॥२५०॥ उत्कृष्टस्थितिचरमे, स्वकस्वकोत्कृष्टसंचयो भवति । पंचदेहानां वरयोगादिस्वसामग्रीसहितानाम् ॥२५०॥ टोका - उत्कृष्ट योग आदि अपने-अपने उत्कृष्ट बध होने की सामग्री करि सहित जे जीव, तिनिकै औदारिकादिक पच शरीरनि का उत्कृष्ट सचय जो उत्कृष्टपने परमाणूनि का संबंध, सो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति का अंत समय विष हो है। तहा स्थिति के पहले समय ते लगाइ एक-एक समय विष एक-एक समयप्रबद्ध बधै । बहुरि प्रागै कहिए है, तिसप्रकार एक-एक समयप्रबद्ध का एक-एक निषेक की निर्जरा होइ, अवशेष संचयरूप होते सतै अत समय विषै किछू घाटि, ड्योढगुणहानि करि समयप्रबद्ध कौ गुण, जो परिमाण होइ, तितना उत्कृष्ट पनै सत्त्व हो है । आगे श्री माधवचद्र त्रैविद्य देव उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री कहै हैआवासया हु भवनद्धाउस्सं जोगसंकिलेसो य । ओकटुक्कट्टणया, छच्चदै गुणिदकम्मसे ॥२५१॥ आवश्यकानि हि भवाद्धा आयुष्यं योगसंक्लेशौ च । अपकर्षरमोत्कर्षणके, षट् चेते गुणितकर्माशे ॥२५१॥ टीका - गुरिणतकर्माश कहिए उत्कृष्ट सचय जाके होइ, असा जो जीव, तीहि विष उत्कृप्ट सचय को कारण ए छह अवश्य होइ । तातै उत्कृष्ट सचय करने वाले जीव के ए छह आवश्यक कहिए। १ भवाद्धा, २ आयुर्बल, ३. योग, ४. सक्लेश,.५. अपकर्षण, ६ उत्कर्षण ए छह जानने । इनिका स्वरूप विस्तार लीए आगे कहिएगा। अव पच शरीरनि का बध, उदय, सत्त्वादिक विर्ष परमाणूनि का प्रमाण का विशेष जानने की स्थिति आदि कहिए है। तहा औदारिकादिक पच शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण कहै है पल्लतियं उवहीणं, तेत्तीसंतोमुहुत्त उवहीणं । छावट्ठी कमछिदि, बंधुक्कस्सदिदी तारणं ॥२५२॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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