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________________ ३७० ] [ गोम्मटगार जीवकाण्ड गाथा २४२-२०3 आगै योगनि की प्रवृत्ति का विधान दिखावै हैवेगुन्विय-प्राहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदसि । जोगोवि एक्ककाले, एक्केव य होदि णियमेण ॥२४२॥ वैविकाहारकक्रिया न समं प्रमत्तविरते । योगोऽपि एककाले, एक एव च भवति नियमेन ॥२४२॥ टीका - प्रमत्त विरत षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि के समकाल विप युगपत् वैक्रियिक काययोग की क्रिया अर आहारक योग की क्रिया नाही। असा नाही कि एक ही काल विष आहारक शरीर को धारि, गमनागमनादि कार्य की करें और विक्रिया ऋद्धि को धारि, विक्रिया संबंधी कार्य को भी करै, दोऊ मे स्यौ एक ही होइ । यातै यह जान्या कि गणधरादिकनि के और ऋद्धि युगपत् प्रवर्तं ती विरुद्ध नाही । बहुरि तैसे ही अपने योग्य अतर्मुहुर्त मात्र एक काल विष एक जीव के युगपत् एक ही योग होइ, दोय वा तीन योग युगपत् न होइ, यह नियम है । जो एक योग का काल विषै अन्य योग सबंधी गमनादि क्रिया की प्रवृत्ति देखिए है, सो पूर्वं जो योग भया था, ताके संस्कार तै हो है । जैसे कुभार पहिले चाक दंड करि फेऱ्या था, पीछे कुंभार उस चाक को छोडि अन्य कार्य को लाग्या, वह चाक सस्कार के बल तै केतक काल आप ही फिर्या करै; सस्कार मिटि जाय, तव फिरै नाही । तैसै आत्मा पहिले जिस योगरूप परिणया था, सो उसको छोडि अन्य योगरूप परिणया, वह योग संस्कार के बल ते आप ही प्रवर्ते है। सस्कार मिटै जैसै छोडया हूवा वाण गिरै, नैसै प्रवर्तना मिटै है । तातै सस्कार ते एक काल विर्ष अनेक योगनि की प्रवृत्ति जानना। बहुरि प्रमत्तविरति कै सस्कार की अपेक्षा भी एक काल वैक्रियिक वा आहारक योग की प्रवृत्ति न हो है। जैसे प्राचार्य करि वर्णन किया है। सो जानना । आगे योग रहित आत्मा के स्वरूप को कहै हैजेसि ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया। ते होंति अजोगिजिणा, अणोवमाणंतबलकलिया ॥२४३॥ येषां न संति योगाः, शुभाशुभाः पुण्यपापसंजनकाः । ते भवंति अयोगिजिनाः, अनुपमानंतबलकलिताः ॥२४३।। २ पट्खडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ २८२, गाथा १५५ ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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