SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २३१-२३२ विर्षे कार्य का उपचार जानना । इहां उपचार है सो निमित्त र प्रयोजन धरै है । तहां औदारिक काय तै जो योग भया, सो श्रदारिक काय योग कहिए; सो यहु ती निमित्त । बहुरि तिस योग ते ग्रहे पुद्गलनि का कर्म - नोकर्मरूप परिणमन, सो प्रयोजन सभव है । तातै निमित्त र प्रयोजन की अपेक्षा उपचार का है । आगे श्रदारिक मिश्रकाययोग को कहै है - १ ओरालिय उत्तत्थं, विजारण मिस्सं तु अपरिपुण्गं तं । जो तेण संपजोगो, ओरालियमिस्सजोगो सो ॥२३१॥ टीका - पूर्वोक्त लक्षण लीएं जो प्रदारिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ, अपर्याप्त होइ, तावत् काल प्रौदारिक मिश्र नाम अनेक कैं मिलने का है; सो इहां पर्याप्त काल संबंधी तीन समयनि विषै संभवता जो कार्माण योग, ताकी उत्कृष्ट कार्माण वर्गणा करि संयुक्त है; ताते मिश्र नाम है । अथवा परमागम विपै जैसे ही रूढि है । जो अपर्याप्त शरीर को मिश्र कहिए, सो तीहि श्रदारिक मिश्र करि सहित संप्रयोग कहिए, ताके अर्थ प्रवर्त्या जो आत्मा के कर्म - नोकर्म ग्रहणे की शक्ति धरै प्रदेशनि का चचलपना; सो योग है । सो शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के प्रभाव ते दारिक वर्गणा स्कंधनि कौ संपूर्ण शरीररूप परिणामावने कौ असमर्थ है । सा श्रदारिक मिश्र काययोग तू जानि । आगै विक्रियिक काय योग को कहै है विविहगुणइड्ढिजुत्तं विविकरियं वा हु होदि वेगुब्वं । तिस्से भवं च गेयं, वेगुब्वियकायजोगो सो २ ॥ २३२ ॥ P श्रौरालिकमुक्तार्थ, विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्णं तत् । यस्तेन संप्रयोगः, औरालिकमिश्रयोगः सः ॥२३१॥ विविधगुणयुक्तं, विक्रिय वा हि भवति विगूर्वम् । तस्मिन् भवं च ज्ञेयं, वैगूविककाययोगः सः ॥२३२॥ पट्ट्पदानम - धवला पुस्तक १ पृष्ठ २६३, गा स. १६१ पुस्तक १, पृष्ठ २६३, गाया १६२ ॥ -
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy