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________________ नववा अधिकार :योग-मागणा-प्ररूपणा ॥ मंगलाचरण ॥ कुंदकुसुमसम दंतजुत, पुष्पदंत जिनराय । वंदौ ज्योति अनंतमय, पुष्पदंतवतकाय ॥९॥ आगे शास्त्रकर्ता योगमार्गणा का निरूपण करं है। तहा प्रथम ही योग का सामान्य लक्षण कहै है - पुग्गलदिवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो ॥२१६॥ पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचनकाययुक्तस्य । जीवस्य या हि शक्तिः, कर्मागमकारणं योगः ॥२१६॥ टीका - संसारी जीव के कर्म, जो ज्ञानावरणादिक-कर्म अर उपलक्षण ते औदारिकादिक नोकर्म, तिनि का आगम कहिए कर्म-नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलस्कधनि का कर्म-नोकर्मरूप परिगामना, ताको कारणभूत जो शक्ति बहुरि उस शक्ति का धारी जो प्रात्मा, ताके प्रदेशनि का चचलरूप होना, सो योग कहिए है । कैसा है जीव ? पुद्गलविपाकी जो यथामभव अगोपाग नाम प्रकृति वा देह जो गरीर नाम प्रकृति ताका उदय जो फल दना रूप परिणामना, ताकरि मन वा भाषा वा शरीररूप जे पर्याप्त, तिनिकी धरं है । मनोवर्गणा, भापावर्गग्गा, कायवर्गणा का अवलंबन करि सयुक्त है । इहा अंगोपाग वा गरीर नाना नामकर्म के उदय ते शरीर, भापा, मन:पर्याप्तिरूप पनिगम्या वाय, भापा, मन वर्गणा का अवलंबन युक्त श्रात्मा, ताको लोकमात्र सर्व प्रदेशनि विपै प्राप्त जो पुद्गलस्कंबनि कौं कर्म-नोकर्मरूप परिगामावने को कारणभूत अनि-नमयंता; मो भाव-योग है । ___बहुरि उस शक्ति का वारी आत्मा के प्रदेशनि विपै किछु चलनरूप सकंप होना मी द्रव्य-योग है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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