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________________ ३२८ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १८ - टोका - बीजे केहिए पूर्वे जे कहे, मूल को आदि देकरि, वीज पर्यत वीजजीव उपजने का आधारभूत पुद्गल स्कंध, सो योनीभूते कहिए; जिस विप जीव उपजे असी शक्ति 'संयुक्त होते सतै जल वा कालादिक का निमित्त पाइ, सोई जीव वा और जीव आनि उपज है। भावार्थ - पूर्व जो बीज विष जीव तिष्ठ थो, सो जीव तौ निकसी गया अर उस वीजं विषं असी शक्ति रही जो इस विप जीव आनि उपज, तहां जलादिक का निमित्त होते पूर्व जो जीव उस बीज को अपना प्रत्येक शरीर करि पीछे अपना आयु के नाश ते मरण पाइ निकसिं गया था, सोंई जीवं बहुरि तिस ही अपने योग्य जो मूलादि वीज, तीहि विष आनि उपजै है । अथवा जो वह जीव और ठिकानै उपज्या होई, तो इस बीज विर्षे अन्य' कोई शरीरांतर विष तिष्ठता जीव अपना आयु के नाश ते मरण पाइ, आनि उँपज है। किंछ विरोध नाही। - जैसे गेहू विर्षे जीव था, सो निकसि गया । बहुरि याको बोया, तब उस ही विप सोई जीव वा अन्य जीव आनि उपज्या; सो यावत् काल जीव उपजने की शक्ति -होइ तावत् काल योनीभूत कहिए । बहुरि जब ऊगने की शक्ति न होइ तव अयोनी भूत कहिए, जैसा भेद जानना.। वहुरि जे मूलने आदि देकरि वनस्पति काय प्रत्येक -रूप प्रतिष्ठित प्रसिद्ध हैं। तेऊ प्रथम . अवस्था विपै जन्म के प्रथम समय तै लगाइ अनर्मुहूर्त काल पर्यंत अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहै है । पीछे निगोदजीव जव पाश्रय कर है, तब सप्रतिष्ठित प्रत्येक होय है । .. ____ आगे श्री माधवचंद्रनामा प्राचार्य विद्यदेव सो सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित जीवनि का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहै है गूढसिरसंधिपत्वं, समभंगमहीरुहं (यं) च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं, तविवरीयं च पत्तेयं ॥१८॥ गूढशिरासंधिपर्व, समभंगमहोरुक च छिन्नरुहम् ।। साधारणं शरीरं, तद्विपरीतं च प्रत्येकम् ॥१८८।। टोका - जिस प्रत्येक वनस्पती शरीर का सिरा, सवि, पर्व, गूढ होइ; वाह्य दीन नाही, तहा सिरा तौ लवी लकीरसी जैसे कांकडी विर्षे होइ । वहरि संधि बीचि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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