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________________ आठवां अधिकार : काय-मार्गणा प्ररूपणा ॥ मंगलाचरण ॥ चंद्रप्रभ जिन की भजौं चंद्रकोटि सम जोति । जाकै केवल लब्धि नव समवसरण जुत होति ।। अथ काय-मार्गणा को कहै है - जाई अविणाभावी, तसथावरउदयजो हवे काओ। सो जिरणमदह्मि भरिणओ, पुढवीकायादिछन्भेश्रो ॥१८१॥ जात्यविनाभावित्रसस्थावरोदयजो भवेत्कायः । स जिनमते भरिणतः, पृथ्वीकायादिषड्भेदः ॥१८१॥ टीका - एकेद्रियादिक जाति नामा नामकर्म का उदय सहित जो त्र-स्थावर नामा नामकर्म का उदय करि निपज्या त्रस-स्थावर पर्याय जीव के होइ, सो काय कहिए । सो काय छह प्रकार जिनमत विष कह्या है । पृथ्वीकाय १, अपकाय २, तेजकाय ?, वायुकाय ४, वनस्पतीकाय ५, सकाय ६-ए छ भेद जानना । कायते कहिए ए वस है, ए स्थावरहै, अंसा कहिए, सो काय जानना । तहा जो भयादिक ते उद्वेगरूप होड भागना आदि क्रिया संयुक्त हो है, सो वस कहिए । वहुरि जो भयादिक पाए स्थिति क्रिया युक्त होड, सो स्थावर कहिए । अथवा चीयते कहिए पुद्गल स्कंधनि करि संचयरूप कीजिये, पुष्टता को प्राप्त कीजिए, सो काय औदारिकादि गरीर का नाम काय है । वहुरि काय विष तिष्ठता जो आत्मा की पर्याय, ताको भी उपचार करि काय कहिए । जाते जीव विपाकी जो त्रस-स्थावर प्रकृति, तिनिकै उदय ते जो जीव की पर्याय होड, सो काय है । ऐसा व्यवहार की सिद्धि है । वहुरि पुद्गलविपाकी शरीर नामा नाम कर्म की प्रकृति के उदय ते भया शरीर, ताका इहां काय गब्द करि ग्रहण नाही है ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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