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________________ सातवां अधिकार : इन्द्रिय-मार्गणा-प्ररूपणा ॥ मंगलाचरण || लोकालोकप्रकाशकर, जगत पूज्य श्रीमान । सप्तम तीर्थंकर नम, श्रीसुपार्श्व भगवान ॥ 1 अथ द्रियमार्गणा का आरंभ करें है। तहां प्रथम इंद्रिय शब्द का निरुक्ति पूर्वक अर्थ है है अहमंदा जह देवा, अविसेसं अहमहंति मण्णंता । ईसंति एक्कमेक्कं, इंदा इव इंदिये जाण १ ॥१६४॥ १ पट्खडागम अहमिंद्रा यथा देवा, प्रविशेषमहमहमिति मन्यमानाः । ईशते एकैकमिद्रा, इव इंद्रियाणि जानीहि ॥ १६४ ॥ टीका - जैसे ग्रैवेयकादिक विषै उपजे से प्रहमिद्र देव ; ते चाकर ठाकुर के ( सेवक स्वामी के ) भेद रहित 'मे ही में हौ' ऐसे मानते संते, जुदे - जुदे एक-एक होइ, प्रज्ञादिक करि पराधीनताते रहित होते सते, ईश्वरता को धरे है । प्रभाव को धरे हैं । स्वामीपना को धरै है । तैसे स्पर्शनादिक इंद्रिय भी अपने-अपने स्पर्शादिविषय विषे ज्ञान उपजावने विषे कोई किसी के आधीन नाही, जुदे-जुदे एक-एक इंद्रिय पर की अपेक्षा रहित ईश्वरता को धरे है । प्रभाव को धरै है । ताते ग्रभिद्रवत् इन्द्रिय है । असे समानतारूप निरुक्ति करि सिद्ध भया, असा इन्द्रिय शब्द का अर्थ कौं हे शिष्य ! तू जानि । आगै इन्द्रियनि के भेद स्वरूप कहै है 3 1 मदिश्रावरणखमोवसमुत्थविसुद्धी हु तज्जबोहो वा । भाविदियं तु दव्वं, देहुदयज देहचिन्हं तु ॥ १६५॥ मत्यावररणक्षयोपशमोत्थविशुद्धिह तज्जबोधो वा । भावेंद्रियं तु द्रव्यं देहोदयजदेहचिह्न तु ॥ १६५॥ - घवला पुस्तक १, पृष्ठ १३८. गाथा ८५ ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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