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________________ २७८ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३० सी मन पर्याप्ति है । बहुरि अनुभया पदार्थ का ग्रहण करना ग्रर अनुभया पदार्थ का ग्रहण करने का योग्यपना का होना, सो मन प्राण है । बहुरि नोकर्मरूप शरीर का संचयरूप शक्ति की जो संपूर्णता, सो जीव के योग्य काल विषे प्राप्त भई जो भाषा वर्गणा, तिनिको विशेष परिणमन की कररणहारी, सो भाषा पर्याप्ति है । वहुरि स्वर नामा नामकर्म का उदय है सहकारी जाका, जैसी भाषा पर्याप्ति पूर्ण भए पीछे वचन का विशेषरूप उपयोगादिक का परिणामावना, तीहि स्वरूप वचन प्राण है । बहुरि कायवरणा का अवलबन करि निपजी जो ग्रात्मा के प्रदेशनि का समुच्चयरूप होने की शक्ति, सो कायबल प्रारण है । बहुरि खल भाग, रस भागरूप परिणए नोकर्मरूप पुद्गलनि को हाड आदि स्थिररूप पर रुधिर आदि अस्थिररूप अवयव करि परिणमावने की शक्ति का संपूर्ण होना, सो जीव के शरीर पर्याप्ति है । बहुरि उस्वास - निस्वास के निकसने की शक्ति का निपजना, सो अनपान पर्याप्ति है । बहुरि सासोस्वास का परिणमन, सो सासोस्वास प्रारण है । जैसे कारणकार्यादि का विशेष करि पर्याप्ति पर प्राणनि विपे भेद जानना । प्रारण के भेदनि को कहै है - पंचवि इंदियपारणा, मरणवचकायेसु तिण्णि बलपाणा । आणापाणप्पाणा, आउगपारगण होंति दह पाणा ॥ १३० ॥ पंचापि इंद्रियप्रारणाः, मनोवचः कायेषु त्रयो बलप्राणाः । आनपानप्राणा, श्रायुष्कप्राणेन भवंति दश प्रारणाः ॥ १३० ॥ टोका - पांच इंद्रिय प्रारण है - १. स्पर्शन, २. रसन, ३. प्राण, ४. चक्षु, ५. श्रोत्र | बहुरि तीन वलप्रारण है १. मनोवल, २. वचनवल एकः श्रानपान कहिए सासोस्वास प्रारण है । वहुरि एक श्रायु प्रारण है । ऐसे प्रारण दश काल | बहुि है, कि नाही है |
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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