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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ २७३ पृथ्वीदकाग्निमारुतसाधारणस्थूलसूक्ष्मप्रत्येकाः । एतेषु अपूर्णेषु च एककस्मिन् द्वादश खं षट्कम् ॥ १२५ ॥ टीका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारण वनस्पति इनि - पांचों के सूक्ष्मबादर करि दश भेद भये पर एक प्रत्येक वनस्पती - इनि ग्यारह लब्धि अपर्याप्तकनि विषै एक-एक भेद विषै बारह, बिंदी, छह इनि अंकनिकरि छह हजार बारह (६०१२) निरंतर क्षुद्रभव जानने । पूर्व निरंतर क्षुद्रभव एकेद्रिय के छ्यासठि हजार एक सौ बत्तीस कहे । तिनिको ग्यारह का भाग दीए एक-एक के छह हजार बारह क्षुद्र भवनि का प्रमाण आवै है। जैसे लब्धि अपर्याप्त के निरंतर क्षुद्रभव कहे, तहां तिनकी संख्या वा काल का निर्णय करने की च्यारि प्रकार अपवर्तन त्रैराशिक करि दिखावै हैं । सो त्रैराशिक का स्वरूप ग्रंथ का पीठबंध विष कह्या था, सो जानना । सो यहां दिखाइये है - जो एक क्षुद्रभव का काल सांस का अठारहवां भाग होइ, तो छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस निरंतर क्षुद्रभवनि का कितना काल होइ ? तहां प्रमाण राशि १, फलराशि एक का अठारहवां भाग १ अर इच्छा राशि छयासठि हजार तीन सै छत्तीस (६६३३६), तहां फल की इच्छा करि गुण प्रमाण का भाग दिए लब्ध राशि विषै छत्तीस सै पिच्यासी अर एक का त्रिभाग ३६८५१ इतना उस्वास भए; असे सब क्षुद्रभवनि का काल का परिमाण भया। यहां इतने प्रमाण अंतर्मुहूर्त जानना । जातै जैसा वचन है, उक्तम् च आढयानलसानुपहतमनुजोच्छवासैस्त्रिसप्तसप्तत्रिप्रमितैः। आहुमुहूर्तमंतर्मुहूर्तमष्टाष्टजितस्त्रिभागयुतैः ॥ याका अर्थ - सुखी, धनवान, आलस रहित, निरोगी मनुष्य का सैतीस सै तेहत्तरि (३७७३) उस्वासनि का एक मुहूर्त; तहां अठ्यासी उस्वास पर एक उस्वास का तीसरा भाग (हीन) घटाए सर्व क्षुद्रभवनि का काल अंतर्मुहूर्त होड । वहुरि उक्तम् च प्रायुरंतर्मुहूर्तः स्यादेषोस्याप्टादशांशकः । उच्छवासस्य जघन्य च नृतिरश्चां लध्यपूर्णके । याका अर्थ - लब्धि अपर्याप्तक मनुप्य तिर्यचनि का प्रायु एक उस्वास का अठारहवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त मात्र है । सो असे कहा मान का अठारहवा भाग
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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