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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [२५१ याका वर्ग दोय से छप्पन का घन सो चौथा स्थान । बहुरि परगट्ठी का घन पांचवां स्थान । बादाल का घन छठा स्थान । जैसे पहला पहला स्थानक का वर्ग कीए एकएक स्थान होइ, सो असे सख्यात स्थान गए जघन्य परीतासंख्यात का घन होइ । या सख्यात स्थान गए आवली का घन होइ । याते एक स्थान गए प्रतरावली का घन होइ । यातै असख्यात असंख्यात स्थान गए क्रम तै पल्य की वर्गशलाका का घन अर अर्धच्छेद का घन अर वर्गमूल का घन होइ । यातै एक स्थान गए पल्य का घन होइ । बहुरि यातै असंख्यात स्थान गए घनांगुल होइ । याते असख्यात स्थान गए जगच्छे, णी होइ । याते एक स्थान गए जगत्प्रतर होइ । यातै अनंतानंत अनंतानंत स्थान गए क्रम ते जीवराशि की वर्गशलाका का घन अर अर्धच्छेद का घन र वर्गमूल का घन हो । यातै एक स्थान गये जीवराशि का घन होइ । यातै अनतानत स्थान गए श्रेणीरूप सर्व आकाश की वर्गशलाका का घन होइ । तातै अनंतात वर्ग स्थान जाइ, ताही का अर्धच्छेद का घन होइ । तातै अनतानंत वर्गस्थान जाइ, ताही का प्रथम मूल का घन होइ । तातै एक स्थान जाइ श्रेणी आकाश का घन होइ, सोई सर्व प्रकाश के प्रदेशनि का परिमाण है । बहुरि याते अनंतानत स्थान गए केवलज्ञान का द्वितीय वर्गमूल का घन होइ, सो याही कौ अत स्थान जानना । प्रथम वर्गमूल और द्वितीय वर्गमूल कौ परस्पर गुणै जो परिमाण होइ, सोई द्वितीय वर्गमूल का घन जानना । जैसे सोलह का प्रथम वर्गमूल च्यारि, द्वितीय वर्गमूल दोय, याका परस्पर गुणन कीए आठ होइ, सोई द्वितीय वर्गमूल जो दोय, ताका घन भी आठ ही होइ, बहुरि द्वितीय वर्गमूल के अनंतरि वर्ग केवलज्ञान का प्रथम मूल, ताका घन कीए केवलज्ञान ते उलघन होइ, सो केवलज्ञान ते अधिक संख्या का अभाव है, तातै सोई अत स्थान कह्या । जैसे या धारा के सर्वस्थान दोय घाटि केवलज्ञान की वर्गशलाका मात्र जानने । द्विरूपवर्गधारा विषै जिस राशि का जहा वर्ग ग्रहण कीया, तहा तिसका घन इस धारा विष जानना | बहुरि दोय रूप का घन का जो घन, ताकौ आदि देकर पहला पहला स्थान का वर्ग करते जो सख्या विशेष होइ, ते जिस धारा विषै पाइये, सो द्विरूप घनाघनधारा है । सो दोय का घन आठ, ताका घन पांच से बारा, सो याका श्रादि स्थान जानना । बहुरि याका वर्ग दोय लाख बासठि हजार एक सौ चवालीस ( २६२१४४ ), सो याका दूसरा स्थान जानना | औसे ही पहला पहला स्थान का वर्ग करते याके स्थान होंहि । जैसे असंख्यात वर्ग स्थान गये लोकाकाश के प्रदेशनि का परिमाण
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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