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________________ २३८ ] [ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ११७ कीया अर पिछला अनवस्था कुड की सरिसा तहां ते ग्रागे एक द्वीप विषै एक समुद्र विषै गेरता जहां पूर्ण भई, तहां फेरि उसकी सूची प्रमाण चौडा ग्रनवस्था कुंड करि एक सरिसो जो रीता कीया था शलाका कुंड, तिस विषं गेरी । असे ही पूर्ववत् व्यास करि वधता - वधता तितना ही अनवस्था कुंड कीजिए, तव दूसरी बार शलाका कुंड पूर्ण होइ । तव प्रतिशलाका कुंड विषै एक सरिसी और गेरणी । पीछे फेरी शलाका कुड रीता करि तैसे ही भररणा । जव भरे, तब एक सरिस प्रतिशलाका कुंड विषे और गेरणी । जैसे ही जव एक, नव आदिक प्रमाण को एक नवादिक अंकनि ते गुणै जो परिणाम होइ, तितने अनवस्था कुंड जव होंइ, तव प्रतिशलाका कुड संपूर्ण भरै; तब ही एक सरिसौ महाशलाका कुंड विषै गेरणी । वहुरि वे शलाका कुड वा प्रतिशलाका कुड दोऊ रीते करणे । बहुरि पूर्वोक्त रीति करि एकएक अनवस्था कुड करि एक-एक सरिसौं शलाका कुड विषै गेरणी । जब शलाका कुड भरे, तव एक सरिस प्रतिशलाका कुंड विषे गेरणी । से करते-करते प्रतिशलाका कुड फेरी संपूर्ण भरै, तब दूसरी सरिसौ महाशलाका कुंड विषै फेरी गेरणी । वहुरि वैसे ही शलाका प्रतिशलाका कुंड रीता करि उस ही रीति सौ प्रतिशलाका कुंड भरे, तब सपूर्ण तीसरी सरिसी महाशलाका कुंड विषे गेरणी । असे करते-करते एक नव न आदि देकरि जे अंकनि का घन कीये जो परिणाम होइ, तितने अनवस्था कुड जव होइ, तब महालाका कुड भी सपूर्ण भरे, तव प्रतिशलाका का शलाका, अनवस्था कुड भी भरें । इहा जे एक नव न आदि देकरि अकनि का घन प्रमाण अनवस्था कुंड कहें, ते सर्व ऊडे तो हजार योजन ही जानने । बहुरि इनिका व्यास, अपना द्वीप वा समुद्र की सूची प्रमाण बघता बघता जानना । सो लक्ष योजन का जेथवा द्वीप वा समुद्र होड, तिननी वार दूणा कीये तिस द्वीप वा समुद्र का व्यास याव है । बहुरि ध्यान की चौगुग्गा करि तामै तीन लाख योजन घटायें सूची का प्रमाण श्रावै है | ता तहां प्रथम अनवस्था कुड का व्यास का प्रमाण लाख योजन है । बहुरि पहला कुट मे जिननी सरिसों माई थी, तितनी ही वार लक्ष योजन का दूणा दूणा कीयें जहा टीप वा समुद्र विषै वे सरिस पूर्ण भई थी, तिस द्वीप वा समुद्र के व्यास का परिमाण या है | बहरि व्यास का परिमाण को चौगुणा करि तीहि में तीन लाख योजना तत्र तिस ही द्वीप वा समुद्र का सूची परिमाण आवै । जो सूची परमान, नो ही दूसरा कुड का व्यास परिमाण जानना । बहुरि पहिला वा दूसरा रूप जितनी नरिन माई, तितनी बार लक्ष योजन की दूगा दूरगा करि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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