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________________ [ मामान्य प्रकरण नानास्वाभ्यास अवश्य करना । बहुरि हे भव्य | शास्त्राभ्यास करने का समय भावना महादुर्लभ है । काहे ते ? सो कहिए है १६] एकेद्रियादि संजी पर्यंत जीवनिके तौ मन ही नाही । अर नारकी वेदना रोडिन, निर्यच विवेक रहित, देव विपयासक्त, तातै मनुष्यनि के अनेक सामग्री मिले नास्त्राभ्यास होइ । सो मनुष्य पर्याय का पावना ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि महादुर्लभ है । तहा द्रव्य करि लोक विषै मनुष्य जीव बहुत थोरे हैं, तुच्छ संख्यात मात्र ही है । र अन्य जीवनि विपे निगोदिया अनंत है, और जीव प्रसंख्याते हैं । बहुरि क्षेत्र करि मनुप्यनि का क्षेत्र बहुत स्तोक है, अढाई द्वीप मात्र ही है । अन्य जीवनि विषै एकेद्रिनि का सर्व लोक है, औरनिका केते इक राजू प्रमाण है । बहुरि काल करि मनुष्य पर्याय विधै उत्कृष्ट रहने का काल स्तोक है, कर्मभूमि अपेक्षा कोटि पूर्व मात्र ही है । यर अन्य पर्यायनि विषै उत्कृष्ट रहने का काल विषे तो ग्रसंख्यात पुद्गल परिर्वतन मात्र, अर और विपै संख्यातपल्य मात्र है । बहरि भाव करि तीव्र शुभाशुभपना करि रहित ऐसे परिणाम होने प्रति दुर्लभ है । ग्रन्य पर्याय को कारण म होने सुलभ है । ऐसे शास्त्राभ्यास का कारण जो मनुष्य पर्याय नाका दुर्लभपना जानना । 1 नहा नुवान, उच्चकुल, पूर्णग्रायु, इंद्रियनि की सामर्थ्य, नीरोगपना, सुसंगति, प्रिय वृद्धि की प्रबलता इत्यादिक का पावना उत्तरोत्तर महादुर्लभ : । प्रत्यक्ष देखिए है । ग्रर इतनी सामग्री मिले विना ग्रंथाभ्यास वनै ' भाग्यकर बहू अवसर पाया है । तातै तुमको हठ करि भी तुमारे सिनेनिरे है। जैन वने तैर्म इस शास्त्र का अभ्यास करो । वहुरि अन्य नैनं मात्राभ्यास करावी । बहुरि जे जीव शास्त्राभ्यास करते मोदना | बहुरि पुस्तक लिवाचना, वा पढने, पढ़ावनेवालों की रातराणी प्रत्याधिक माया की बाह्यकारण, तिनका साधन करना । सभी दाद भी पपपही है वा महत्पुण्य उपजै है | श्रभ्यामादिवि जीवनि की रुचिवान किया । ܀ मनुष्य पर्याय कौ शुभरूप वा शुभरूप पर्याप्त कर्मभूमिया ""
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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