SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [गोम्मटसार जीवकार गापा ११२ २२८ ] उत्कृष्ट स्थान, सो अंत जानना । तहा 'यादी अंते सुद्धे वट्टिहिदे स्वसंजुदे ठाणे' इस करण मूत्र करि आदि का प्रमाण की प्रत का प्रमाण समच्छेद विप अपवर्तनादि विधान करि घटाए जो अवशेप प्रमाण रहै, ताकी स्थान-स्थान प्रति वृद्धिरूप जो एक प्रदेश, ताका भाग दीए भी तेता ही रहै, तामैं एक जोडे जो प्रमाण होड, तितने मूक्ष्म निगोद लव्धि अपर्याप्तक जीवनि के सव अवगाहना के भेद है । इनिर्म आदि स्थान पर अंत स्थान, इनि दोऊनि को घटाये अवणेप तिस ही जीव के मध्यम अवगाहना के स्थान हो हैं । वहरि इस ही प्रकार सूक्ष्म लव्धि अपर्याप्तक वायुकायिक जीव आदि देकरि संजी पंचद्री पर्याप्त पर्यंत जीवनि के अपने-अपने जघन्य अवगाहना स्थान तै लगाइ, अपने-अपने उत्कृप्ट अवगाहना स्थान पर्यंत सर्व अवगाहना के स्थान, अर तिनि विष जघन्य-उत्कृप्ट दोय स्थान घटाये तिन ही के मध्य अवगाहना स्थान, ते मूत्र के अनुसारि ल्याईये । अव मत्स्यरचना के मध्य प्राप्त भए ऐसे सर्व अवगाहना स्थान, तिनिके स्थापना का अनुक्रम कहिये है। पूर्व अवगाहना के स्थान चीसठि कहे श्रे, तिनि विप ऊपरि की पंक्ति विप प्राप्त जे वियालीस गुणकाररूप स्थान, तिनिकी गुणित क्रमस्थान कहिये । वहरि नीचे की टोय पंक्तिनि विप प्राप्त जे वावीस अधिकरूप स्यान, तिनिको अधिक स्थान कहिये । तहां चौसठि स्थाननि विपं गुणित क्रमरूप वा अविकरूप स्थान अपने-अपने जघन्य ते लगाइ अपने-अपने उत्कृप्ट पर्यत जेतेजेने होंड, तिनि एक-एक स्थान की दोय-दोय विदी वरोवरि लिखनी; जाते एक-एक स्थान के वीचि अवगाहना के भेद बहुत हैं। तिनिकी संदृष्टि के अथि दोय विदी स्थापी, बहुरि तिनि जीवसमासनि विप सभवते स्थाननि की नीच-नीचे पंक्ति करनी। ऐने स्था माछलेकासा आकार हो है, सो कहिए है । ( देखिए पृष्ठ २२९-२३० ) प्रथम मूक्ष्म निगोद लधि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान तै लगाइ ताही का उत्कृप्ट पर्यंत सतरह स्थान हैं। तहां सोलह गुगिगत स्थान हैं। एक अधिकम्यान है । सो प्रथमाटि एक-एक स्थान की दोय-दोय बिंदी की संदृष्टि करने करि बातील विदी बरोवरि परि पंक्ति विपं लिखनी । इहां मूक्ष्म निगोद लब्धि प्रान्त का जघन्य स्थान पहला है, उत्कृष्ट अठारहवां है, तथापि गुणाकारपना बा अधिक्रपनान्य अंतराल सतरह ही है; तातै सतरह ही स्थान ग्रहे है। ऐसे आगे भी जानना । वहुरि से ही तिस पंक्ति के नीचें दूसरी पंक्ति विप सूक्ष्म लब्धि Force -युकायिक जीव का जघन्य अवगाहना स्थान ते लगाइ ताके उत्कृष्ट
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy