SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [गोम्मटमार जीवका गाया १११ २२२] अर उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह तै भी याका प्रमाण अधिक भया, तातै याकी अमंच्यात भागल्प न कह्या जाय । जातै उत्कृष्ट ते अधिक पर जघन्य ते हीन कहना असंभव है, तातै इहां अवक्तव्य भाग का ग्रहण कीया । जैसे ही आगे भी यथासंभव अवक्तव्य भाग वृद्धि वा गुण वृद्धि वा अवक्तव्य भाग हानि वा गुण हानि का स्वरूप जानना । बहुरि वृद्धिरूप होइ जो स्यान पचीस से साठि प्रमाण रूप भया, तहां अनंन्यात भाग वृद्धि प्रादि संभव है । जातै उत्कृष्ट असल्यात पंद्रह का भाग आदि म्यान की दीए एक सौ साठि पाए, सोई डहा आदि स्थान है अधिक का प्रमाण है। वहरि ऐसे ही जिस-जिस स्थान विपं आदि स्थान ते अधिक का प्रमाग संभवनं असंख्यात के भेद का भाग आदि स्थान की दीए आवै, तहां-तहां असंख्यात भाग वृद्धि संभव है । तहां जो स्थान प्राइस से प्रमाणल्प भया, तहां असंख्यात भाग वृद्धि का अंत जानना। जाते जवन्य असंख्यात छह, ताका भाग आदि स्थान की दीए च्यारिमै पाए, सोई यहां इतने आदि स्थान ते अधिक है । वहुरि जे स्थान अट्ठाइस से एक आदि अट्ठाईस सै गुण्याती पर्यत प्रनागल्प हैं, तहां अवक्तव्य भाग वृद्धि नभव है । जाते जघन्य असत्यात का भो वा उत्कृष्ट संन्यात का भो भाग की वृद्धिरूप प्रमाग ते इनिका प्रमाण अधिक हीन है । वहरि वृद्धिरूप होइ जो स्थान अचाईस सै असी प्रमाणल्प भया. तहां संख्यात भाग बृद्धि का आदि सनवै है । जाते उत्कृष्ट संख्यात पात्र, ताका भाग आदि स्थान की बीए च्यारि सै अत्ती पाए, तोई इतने इहां आदि स्थान ते अधिक हैं । वहुरि से ही जिस-जिस स्थान विपं ग्रादि स्थान ते अधिक का प्रमाण संभवने संख्यात के भेद का भाग आदि स्थान कौं दीए प्रावै, तहां-तहां सन्यात भाग वृद्धि संभव है। यहां जो स्थान छत्तीस से प्रमागरूप मया, तहां संन्यात भाग वृद्धि का अंत जानना । जातें जघन्य सख्यात दोय, ताका भाग आदि स्थान को दीए गरह नै पाए. सो इतने हां आदि स्थान ते अधिक हैं । बहुरि जे स्थान छनीस सै एक आदि संतालीस मै निन्यानवे पर्यन्त प्रमागरूप हैं, तहां अवक्तव्य भाग वृद्धि नंमत्र है । जाने जघन्य मन्यात भाग वृद्धि वा जघन्य संन्यात गुग वृद्धिल्प प्रमाण नं भी इनिका प्रमाण अधिक होन है । वहुरि वृद्धिल्प होइ जो स्थान अडतालीस से प्रमाणन भया, तहां नंदयात गुण वृद्धि का आदि संभव है; जाते जघन्य संख्यात दोय. नाकरि आदि स्थान की गुणें इतना प्रमाण हो है। अंसं ही जिस-जिस स्थान गप्रनाग मननं नंदात के भेद करि आदि स्थान की गुण आवै, तहां-तहां संन्च्यात मृग वृद्धि मन ई 1 तहां जो स्थान वारह हजार प्रमाणरूप भया, तहां संख्यात
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy