SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ १७१ तीन गुणस्थानवर्ती जीवनि के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । बहुरि तातै उपशात कषाय गुणस्थानवर्ती जीव के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि तातै क्षपक श्रेणीवाले अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवी जीव के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । बहुरि तातै क्षीण कषाय गुणस्थानवी जीव कै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि तातै समुद्घात रहित जो स्वस्थान केवली जिन, ताकै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । बहुरि तातै समुद्घात सहित जो स्वस्थान समुद्घात केवली जिन, ताकै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है। जैसे ग्यारह स्थानकनि विर्ष गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य के स्थानस्थान प्रति असंख्यातगुणापना कह्या। ____ अब तिस गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य का प्रमाण कहिए है। कर्मप्रकृतिरूप परिणए पुद्गल परमाणु, तिनका नाम इहां द्रव्य जानना । अनादि संसार के हेतु ते बंध का संबध करि बंधरूप भया जो जगच्छे णी का धनमात्र लोक, तीहि प्रमाण एक जीव के प्रदेशनि विर्ष तिष्ठता ज्ञानावरणादिक मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति संबंधी सत्तारूप सर्वद्रव्य, सो प्रागै कहिएगा जो त्रिकोण रचना, ताका अभिप्राय करि किचित् ऊन ड्योढ गुणहानि आयाम का प्रमाण करि समयप्रबद्ध का प्रमाण को गुण जो प्रमाण होइ, तितना है । बहुरि इस विषै आयु कर्म का स्तोक द्रव्य है, तातै या विष किचित् ऊन किए अवशेष द्रव्य सात कर्मनि का है। तातै याकौ सात का भाग दीए एक भाग प्रमाण ज्ञानावरण कर्म का द्रव्य हो है । बहुरि याको देशघाती, सर्वघाती द्रव्य का विभाग के अर्थि जिनदेव करि देखा यथासभव अनंत, ताका भाग दीए एक भाग प्रमाण तौ सर्वघाती केवलज्ञानावरण का द्रव्य है । अवशेष बहुभाग प्रमाण मतिज्ञानादि देशघाति प्रकृतिनि का द्रव्य है । बहुरि इस देशघाती द्रव्य को मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय, ज्ञानावरणरूप च्यारि देशघाती प्रकृतिनि का विभाग के अर्थि च्यारि का भाग दीए एक भाग प्रमाण मतिज्ञानावरण का द्रव्य हो है । भावार्थ - इहा मतिज्ञानावरण के द्रव्य की गुणश्रेणी का उदाहरण करि कथन कीया है । तातै मतिज्ञानावरण द्रव्य का ही ग्रहण कीया है । जैसे ही अन्य प्रकृतिनि का भी यथासंभव जानि लेना । बहुरि इस मतिज्ञानावरण द्रव्य को अपकर्षण भागहार का भाग देइ, तहां बहुभाग तो तैसे ही तिष्ठ है; असा जानि एक भाग का ग्रहण कीया ।।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy