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________________ १२८ ] [ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाया ४४ चीवीस अनंकित स्थान घटाइए, तव च्यारि से एक होंड । बहुरि इनिकी यह इंद्रिय करि गणिए अर इहां अतभेद का ग्रहण है, तातै अनकित न घटाइए, तव चौवीस से छह होइ । बहुरि इनको पांच निद्रा करि गुणिए अर इहां चौथी निद्रा का ग्रहण है, तात याके परै एक अनंकित स्थान है, ताकी घटाइए, तव वारह हजार गुणतीस होइ । याकी दोय प्रणय करि गुणिए अर इहां प्रथम भेद का ग्रहण है; तात याके पर एक अनंकित स्थान घटाइए, तव चौवीस हजार सत्तावन होंड, असे स्नेहवाननिद्रालु-मन के वशीभूत-अनंतानुवंधीक्रोधयुक्त-मूर्खकथालापी असा पूच्या हुवा आलाप चौवीस हजार सत्तावनवां जानना । याही प्रकार अन्य उडिप्ट साधने । वहरि जैसे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा विधान कह्या; तसे ही द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा यथासंभव नष्ट, उद्दिष्ट ल्यावने का विधान जानना । असे साडा सैतीस हजार प्रमाद . भंगनि के प्रकार जानने । वहुरि याही प्रकार अठारह हजार शील भेद, चौरासी लाख उत्तर गुण, मतिनान के भेद वा पाखंडनि के भेद वा जीवाधिकरण के भेद इत्यादिकनि विर्षे जहां अक्षसंचार करि भेदनि की पलटनी होड, तहां संख्यादिक पांच प्रकार जानने । विशेप इतना पूर्व प्रमादनि की अपेक्षा वर्णन कीया है । इहां जाका विवक्षित वर्णन होइ, ताको अपेक्षा सर्वविधान करना । तहां जैसे प्रमादनि के विकथादि मूलभेद कहे हैं, तैसे विवक्षित के जेते मूलभेद होइ, ते कहने । वहुरि जैसै प्रमाद के मूल भेदनि के स्त्रीकथादिक उत्तरभेद कहै हैं, तैसै विवक्षित के मूलभेदनि के जे उत्तर भेद हो हैं, ते कहने । वहुरि जैसे प्रमादनि के आदि-अंतादिरूप मूलभेद ग्रहि विधान कह्या है, तैसें विवक्षित के जे आदि-अंतादि मूलभेद होंइ, तिनकौ ग्रहि विधान करना । वहुरि जैसे प्रमाद के मूलभेद-उत्तरभेद का जेता प्रमाण था, तितना ग्रहण कीया । तैसें विवक्षित के मूल भेद वा उत्तर भेदनि का जेता-जेता प्रमाण होड, तितना ग्रहण करना । इत्यादि संभवते विणेप जानि, संख्या पर दोय प्रकार प्रस्तार अर तिन प्रस्तारनि की अपेक्षा अक्षसंचार अर नप्ट पर समुद्दिष्ट ए पांच प्रकार हैं, ते यथासंभव सावन करने । तहां उदाहरण - तत्त्वार्थसूत्र का पप्ठम अध्याय विर्षे जीवाधिकरण के वर्णन स्वल्प असा सूत्र है - "प्राद्यं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्रकशः" ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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