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________________ ११६] [ गोम्मटसार जीवफाण्ट गाया ४२ टीका - प्रथम एक रूप स्थापन करि ऊपरि ते अपना प्रमाण करि गणे, जो प्रमाण होई, तामै अनकित स्थान का प्रमाण घटावना, असे सर्वत्र करना । इहां जो भेद ग्रहण होड, ताके परै स्थानकनि की जो संख्या, ताकी अनंकित कहिए। जैसे विकथा प्रमाद वि प्रथम भेद स्त्रीकथा का ग्रहण होड, तो तहा ताक पर तीन स्थान रहैं, तातै अनंकित का प्रमाण तीन है । वहुरि जो भक्तकथा का ग्रहण होड, तो ताक पर दोय स्थान रहै, तातै अनंकित स्थान दोय है । वहुरि जो राष्ट्रकथा का ग्रहण होड, तौ ताकै परै एक स्थान है, तातै अनंकित स्थान एक है । वहुरि जो अवनिपालकथा का ग्रहण होड, तो ताक पर कोऊ भी नहीं, तातै तहां अनकित स्थान का अभाव है । जैसे ही कपाय, इंद्रिय प्रमाद विप भी अनंकित स्थान जानना । सो कोऊ कहे कि अमुक पालाप केथवां है ? तहां आलाप कह्या, ताकी संख्या न जानिए, तो ताकी संख्या जानने की उद्दिष्ट कहिए है । प्रथम एक रूप स्थापिए, वहुरि परि का इंद्रिय प्रमाद संख्या पांच, ताकरि तिस एक की गणिए, तहां अनंकित स्थानकनि की संख्या घटाइ, अवशेप को ताके अनंतर नीचला कपाय प्रमाद का पिड की संख्या च्यारि, ताकरि गुणिए, तहां भी अनंकित स्थान घटाड, अवशेष की ताके अनंतरि नीचला विकथा प्रमाद का पिंड च्यारि, ताकरि गुणिए, तहां भी अनंकित स्थान घटाइ, अवशेप रहै तितनां विवक्षित पालाप की संख्या हो है । असे ही सर्वत्र उत्तरगुण वा शीलभेदनि वि उहिप्ट ल्यावने का अनुक्रम जानना । इहां भी उदाहरण दिखाइए है - काहूने पूछ्या कि राष्ट्रकथालापी-लोभीस्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान असा आलाप केथवा है ? तहां प्रथम एक रूप स्थापि, ताकी उपरि का इंद्रिय प्रमाद, ताकी संख्या पांच, तीहिकरि गुणें पांच भए । तीहि राशि विप पंद्रहवां उद्दिष्ट की विवक्षा करि, तामैं पहला भेद स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत ऐसा आलाप विप कहा था, तातै ताके परै रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र ए च्यारि अनंकित स्थान हैं । ताते इनकी घटाएं, अवशेप एक रहै, ताकी नीचला कपाय प्रमाद की संख्या च्यारि करि गुणे, च्यारि भए, सो इस लवराशि च्यारि विपैं इहां पालाप विप लोभी कहा था, सो लोभ के परै कोऊ भेद नाही । तातें अनंकित स्थान कोऊ नाहीं । इस हेतु तं इहां शून्य घटाए, राशि जैसा का तैसा ही रह्या, सो च्यारि ही रहै । वहुरि इस राशि को याके नीचे विकथा प्रमाद की संख्या च्यारि ताकरि गुणे सोलह भए । इहां पालाप विपै
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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