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________________ प्रथम अध्याय आचार्य कुन्दकुन्द जिन - अध्यात्म के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान दिगम्बर जिन आचार्य परम्परा में सर्वोपरि है । दो हजार वर्ष से आज तक लगातार दिगम्बर साधु अपने आपको कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा का कहलाने में गौरव का अनुभव करते आ रहे हैं । शास्त्रसभा में गद्दी पर बैठकर प्रवचन करते समय ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नाम के साथ-साथ यह उल्लेख भी श्रावश्यक माना जाता है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द की आम्नाय में रचा गया है। प्रवचन के आरम्भ में बोली जानेवाली उक्त पंक्तियाँ इसप्रकार हैं : "प्रस्य मूलग्रन्थकर्तारः श्रीसर्वज्ञवेवास्तदुत्तरन्थकर्तारः श्रीगरणघरदेवाः प्रतिगणवरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य श्रीकुन्दकुन्दाम्नाये ...विरचितम् । श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु ।” उक्त पंक्तियों के उपरान्त मंगलाचरणस्वरूप जो छन्द बोला जाता है, उसमें भी भगवान महावीर और गौतम गणधर के साथ समग्र आचार्यपरम्परा में एकमात्र प्राचार्य कुन्दकुन्द का ही नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया जाता है, शेष सभी को 'आदि' शब्द से ही ग्रहण कर लिया जाता है | इसप्रकार हम देखते हैं कि जिसप्रकार हाथी के पैर में सभी के पैर समाहित हो जाते हैं, उसीप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द में समग्र श्राचार्य परम्परा समाहित हो जाती है । दिगम्बर परम्परा के प्रवचनकारों द्वारा प्रवचन के आरम्भ में मंगलाचरणस्वरूप बोला जानेवाला छन्द इसप्रकार है : "मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गरणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।"
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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