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________________ ७२ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम लौकिकजनों के सम्पर्क में रहनेवाले श्रमणों के लिए आचार्य कुन्दकुन्द का निम्नांकित प्रादेश ध्यान देने योग्य है : "रिणच्छिवसुत्तत्थपदो समिदफसाम्रो तवोषिगो चाधि। लोगिगजएसंसग्गं ण चर्याद जदि संजयो प हवेवि ॥' जो जिनसूत्रों के मर्म को जानता है, जिसकी कषायें उपशमित हैं, जो तप में भी अधिक है; पर यदि वह लोकिक जनों के संसर्ग को नहीं छोड़ता है तो वह संयमी नहीं है।" लौकिकजन की परिभाषा लिखते हुए वे लिखते हैं :रिणग्गंथं पन्धइवो बट्टदि जति एहिगेहि कम्मेहि। सो लोगिगो ति भरिणवो संजमतषसंपजुत्तो वि ॥ निर्ग्रन्थरूप से दीक्षित होने के कारण जो संयम-तपयुक्त भी हो, पर यदि वह ऐहिक कार्यों सहित वर्तता हो तो उसे लौकिक कहते हैं।" इसप्रकार हम देखते हैं कि इस अधिकार में शुद्धोपयोगी भाव लिंगी सन्तों के शुभोपयोग की क्या मर्यादायें हैं - इस पर सर्वाङ्गीण प्रकाश डाला गया है। २७१वीं से २७५वीं गाथा तक की अन्तिम पांच गाथाएँ पंचरत्न के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनमें मुनिराजों को ही संसारतत्त्व एवं मुनिराजों को ही मोक्षतत्त्व और मोक्ष के साधन तत्त्व कहा है । वस्तु के अयथार्थ रूप को ग्रहण करनेवाले अनन्त संसारी श्रमणाभास ही संसारतत्त्व हैं तथा वस्तुस्वरूप के यथार्थ ज्ञाता प्रात्मानुभवी शुद्धोपयोगी श्रमण ही मोक्षतत्त्व हैं, मोक्ष के साधनतत्त्व हैं । सर्वान्त में मंगल आशीर्वाद देते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान के प्रवचनों के सार इस 'प्रवचनसार' ग्रन्थ का भलीभाँति अध्ययन करेगा, वह प्रवचन के सार शुद्धात्मा को अवश्य प्राप्त करेगा। १ प्रवचनसार, गाथा २६८ २ प्रवचनसार, गाथा २६६
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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