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________________ ४६ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम प्रवर्तित मिथ्यादृष्टि जीव को होनेवाले पापबंध का कारण रागादिभाव ही हैं, अन्य चेष्टायें या कर्मरज प्रादि नहीं । बंधाधिकार के श्रारम्भ में ही अभिव्यक्त इस भाव को बनारसीदासजी ने इसप्रकार व्यक्त किया है : "कमंजाल - वर्गना सौं जग में न बंध जीव, बंध न कदापि मन-वच-काय जोग सौं ॥ चेतन अचेतन की हिंसा सौं न बंध जोन, बंध न अलख पंच विषं विष-रोग सौं ॥ कर्म सौं प्रबंध सिद्ध जोग सौं प्रबंध जिन, हिंसा सf प्रबंध साधु ग्याता विषं भोग सौं । इत्यादिक वस्तु के मिलाप सौं न बंधे जीव, बंबं एक रागादि असुद्ध उपयोग सौं ।" निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि बंध का मूल कारण रागादि भावरूप अशुद्धोपयोग ही है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि अकेला अशुद्धोपयोग ही बंध का कारण क्यों है ? परजीवों का घात करना, उन्हें दुःख देना, उनकी सम्पत्ति आदि का अपहरण करना, झूठ बोलना आदि को बंघ का कारण क्यों नहीं कहा गया है ? इसका उत्तर देते हुए प्राचार्यदेव कहते हैं कि प्रत्येक जीव अपने कोई सुख-दुःख और जीवन-मरण आदि का उत्तरदायी स्वयं ही है, अन्य जीव अन्य जीव को सुखी-दुःखी नहीं कर सकता और न मारजिला ही सकता है । जब कोई व्यक्ति किसी का कुछ कर ही नहीं सकता तो फिर किसी अन्य के जीवन-मरण और सुख-दुःख के कारण किसी अन्य को बंध भी क्यों हो ? सभी जीव अपने आयुकमं के उदय से जीते हैं और आयुकमं के समाप्त होने पर मरते हैं । इसीप्रकार सभी जीव अपने कर्मोदय के १ समयसार नाटक, बंधद्वार, छन्द ४
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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