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________________ ३२] [सूत्र २१ काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ किन्त्वस्ति काचिदपरैव पदानुपूर्वी, यस्यां न किञ्चिदपि किञ्चिदिवावभाति । आनन्दयत्यथ च कर्णपथं प्रयाता, चेतः सताममृतवृष्टिरिव प्रविष्टा । किन्तु वह [वैदर्भी रीतिमयी ] कुछ और ही [प्रकार की लोकोत्तर] पद रचना है जिसमें [ निबद्ध होने पर ] न कुछ [ तुच्छ या असत् ] सी वस्तु भी कुछ [अलौकिक चमत्कारमय ] सी प्रतीत होती है । और सहृदयों के कर्णगोचर होकर उनके चित्त को इस प्रकार श्राह्लादित करती है मानो [कहीं से ] अमृत की वर्षा हो रही है। इस श्लोक की व्याख्या के प्रसङ्ग में श्री गोपेन्द्रत्रिपुरहरभूपालविरचित 'वामनालङ्कार सूत्रवृत्ति' की कामधेनु नामक व्याख्या में इसके पूर्वार्द्ध रूप मे यह दो पक्तिया और उद्धृत की है , जीवन् पदार्थपरिरम्भणमन्तरेण शब्दावधिर्भवति न स्फुरणेन सत्यम् । इन पक्तियों का अभिप्राय यह है कि जीवित अर्थात् चमत्कारयुक्त पदार्थ के बिना केवल वैदी रीति के स्फुरणमात्र से वाक्य या काव्य के सौदर्य की पराकाष्ठा नहीं होती है, यह सत्य है किन्तु, इस प्रकार इस पूर्वार्द्ध की अगले श्लोक के साथ सङ्गति तो लग जाती है परन्तु वह इस 'किन्त्वस्ति० इत्यादि श्लोक का पूर्वार्द्ध नहीं है | किन्तु इसके पूर्व यदि एक पूर्वपक्ष का श्लोक दिया जाय यह पंक्किया उस पूर्वपक्ष के श्लोक का उत्तरार्द्ध हो सकती हैं। परन्तु यह श्लोक स्वयं परिपूर्ण है। ग्रन्थकार ने पुरा श्लोक उद्धृत किया है । केवल उत्तरार्द्ध नही । फिर टीकाकार ने न जाने क्यों 'अत्र... इति पूर्वार्द्ध पठन्ति लिख कर ऊपर की दोनों पक्तिया उद्धत की हैं । श्लोक में आए हुए 'न किञ्चिदिव' शब्द का असद्वस्तु और किञ्चिदिवावमाति' का अर्थ सदिवावभाति' यह अर्थ टीकाकार ने भी अपनी टीका मे दिया है। ग्रन्थकार श्री वामन वैदर्भी रीति की प्रशसा में आगे एक और श्लोक उद्धृत करते हैं
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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