SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र ५] प्रथमाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः अपनाया है । और अपने ग्रन्थो मे उसको उद्धृत किया है। इसके अनुसार कीर्ति और प्रीति के अतिरिक्त पुरुषार्थचतुष्टय और कला तथा व्यवहार आदि में ' नैपुण्य का लाभ भी काव्य का प्रयोजन है। कुन्तक ने अपने 'वक्रोक्तिजीवितम' मे इसको और अधिक स्पष्ट करने का ' प्रयत्न किया है। उन्होने काव्य के प्रयोजनो का निरूपण करते हुए लिखा है १धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । काव्यबन्धोऽभिजाताना हृदयाह्लादकारकः ॥ ३ ॥ व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्य व्यवहारिभिः । सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते ॥ ४ ॥ चतुर्वर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम् । काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥५॥ अर्थात् काव्य की रचना अभिजात श्रेष्ठकुल मे उत्पन्न राजकुमार आदि के लिए कहा हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि का सरल मार्ग है । सत्काव्य के परिज्ञान से ही, व्यवहार करने वाले सब प्रकार के लोगों को अपने-अपने व्यवहार का पूर्ण एवं सुन्दर ज्ञान प्राप्त होता है । [और सबसे बड़ी बात यह है कि ] चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति से भी बढ़ कर सहृदयों के हृदय मे चमत्कार उससे उत्पन्न होता है। कुन्तक के इस काव्य प्रयोजन के निरूपण को काव्यप्रकाशकार श्री मम्मटाचार्य ने और भी अधिक व्यापक तथा स्पष्ट करके इस प्रकार लिखा है काव्य यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिवृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥२॥ इसमे काव्यप्रकाशकार ने काव्य के ६ प्रयोजन प्रतिपादन किए हैं। जिनमें से तीन को हम मुख्यतः कविनिष्ठ और शेष तीन को मुख्यतः पाठकनिष्ठ प्रयोजन कह सकते हैं। 'यशसे', 'अर्थकृते' और 'शिवेतरक्षतये अर्थात् यश और अर्थ की प्राप्ति तथा अनिष्ट का नाश यह तीनों प्रयोजन कवि के उद्देश्य 'वक्रोक्तिजीवितम् १, ३, ४,५। २ काव्यप्रकाश १, २॥
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy