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________________ मम्मट ने इसी को स्पष्ट करते हुए लिखा है : श्रात्मा के शौर्यादि गुणों की भाँति जो अगभूत रस के उत्कर्षवर्धक अचल स्थिति धर्मं हैं वे गुण कहलाते हैं । इसके विपरीत अलंकार शब्द अर्थ के धर्म है और वे अचल स्थिति नहीं है : सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि । काव्य के लिए सगुणता अनिवार्य है, परन्तु अलंकृति कभी नहीं भी होती । विश्वनाथ ने अलंकार की परिभाषा में ही यह भेद निहित कर दिया - "शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः – अलंकार शब्द - अर्थ के शोभातिशायी अस्थिर धर्म हैं ।” गुण के समान उनकी स्थिति आवश्यक नहीं है : अस्थिरा इति नैषां गुणवदावश्यकी स्थितिः (सा० दर्पण) । अतएव रस-ध्वनिवादियों के अनुसार गुण और अलंकार का भेद इस प्रकार है : (१) गुण प्राणभूत रस के धर्म हैं, अलंकार अंगभूत शब्द अर्थ के । (२) स्वभावतः गुण काव्य के आंतरिक तत्व हैं—वे द्रुति, दीप्ति आदि चित्तवृत्तियों के तप हैं, अलंकार बाह्य तत्व हैं । (३) रसानुभूति की प्रक्रिया में गुणों का योग प्रत्यक्ष रहता है। अलंकारों का अप्रत्यक्ष, वे वाच्य-वाचक का उपकार करते हुए व्यंग्य रस के परिपाक योग देते हैं । (४) अतएव गुण काव्य के नित्य धर्म हैं, अलंकार अनित्य । (५) रसादि अंतर्तत्वों की भांति गुण व्यंग्य रहते हैं, अलंकार वाच्य । साधारणतः रस-ध्वनिवादियों का यह विवेचन ही मान्य रहा और वास्तव में यही संगत भी है यद्यपि इसमें थोड़ा अतिवाद अवश्य है । वह प्रतिवाद यह है कि इन्होंने गुण को सिद्धान्त में एकान्त रसधर्म मान लिया है। परन्तु जैसा कि हमने अन्यत्र सिद्ध किया है, और व्यवहार में रस-ध्वनिवादियों ने भी माना है, गुण शब्द और अर्थ से सर्वथा असम्बद्ध नहीं हैं। इसी प्रकार अलंकार भी मूलतः वाचक शब्द और वाच्य अर्थ के धर्म होते हुये भी व्यंग्य अर्थ से सर्वथा असम्बद्ध नहीं होते । गुण चित्तवृत्ति रूप हैं, अलंकार वाणी के ( ७३ )
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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