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________________ ने काव्य को इष्टार्थवाचक पदावली माना है-अतएव काव्य-शोभा का अर्थ हुधा शब्दार्थ की शोभा और उसके विधायक गुणों का सम्बन्ध सीधा शब्दार्थ वामन .- गुण का लक्षण सबसे पहले वामन ने किया है . 'काव्य के शोभाकारक धर्म गुण कहलाते हैं। शब्द और अर्थ के वे धर्म जो काव्य को शोभा-सम्पन्न करत हैं गुण कहलाते हैं । वे हैं भोज, प्रसादादि-यमक उपमादि नहीं क्यो कि यमक उपमादि अलंकार, अकेले, काव्य-शोभा की सृष्टि नहीं कर सकते । इसके विपरीत ओज प्रसादादि अकेले ही काव्य को शोभा-सम्पन्न कर सकते है। + + + + गुण नित्य है-उनके बिना काव्य में शोभा नहीं आ सकती। (काव्यालकारसूत्र ३,१) अर्थात् (१) गुण शब्द और अर्थ के धर्म हैं। (२) वे काव्य के मूल शोभाधायफ तत्व हैं। (३) वे काव्य के काव्यत्व के लिए अनिवार्य हैं। उनके बिना काव्य काव्य-पद का अधिकारी नहीं होता। इसके अतिरिक्त (५) भरत के प्रतिकूल तथा दण्डी के अनुकूल वामन गुणों को रस के धर्म न मानकर शब्दार्थ के ही धर्म मानते हुए काव्य में उनको स्वतन्त्र तथा प्रमुख सत्ता मानते हैं। गुण रस के आश्रित नहीं है वरन् कान्ति गुण का अंग होने के कारण रस हो गुण का अंग है :दीप्तरसत्व कातिः। ध्वनिकार तथा उनके अनुयायी : ध्वनिकार ने गुणों का स्वतन्त्र अस्तित्व न मानकर उन्हे रस के आश्रित माना है। उन्होंने गुण का लक्षण इस प्रकार किया है : "तमर्थमवलम्बन्ते येऽगिनं ते गुणाः स्मृता. " अर्थात् जो प्रधानभूत (रस) अगो के आश्रित रहने वाले हैं उनको गुण कहते हैं। इस प्रकार ध्वनिकार ने उन्हें प्रात्मभूत रस के धर्म माना है शरीरभूत शब्दार्थ के नहीं। ध्वनिकार के उपरान्त प्रायः उन्हीं का मत मान्य रहा । मम्मट ने उनके लक्षण को और स्पष्ट करते हुए लिखा है :
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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