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________________ इसीलिए प्रवृत्ति का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नाटक से ही है-रीति का काव्य से (या नाटक के काव्यांग से)। परन्तु इस भेद के रहते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति की कल्पना के पीछे प्रवृत्ति की प्रेरणा निस्संदेह वर्तमान थी। रीति और वृत्ति :-प्रवृत्ति का प्रचलन अत्यन्त सीमित हो रहा-अतएव उसके विषय में विशेष भ्रान्ति उत्पन्न नहीं हुई। परन्तु वृत्ति और रीति में अन्त तक भ्रान्ति के लिए अवकाश रहा। वृत्ति के संस्कृत काव्य-शास्त्र में अनेक अर्थ है- किन्तु उन सबका प्रस्तुत प्रसंग से सम्बन्ध नहीं है । वृत्ति के केवल दो रूप ऐसे हैं जो रीति के समानधर्मी हैं जिनसे उसका पार्थक्य आवश्यक है । ये दो रूप हैं (१) नाट्य वृत्तियां : भारतीय, सात्वती, कैशिकी तथा प्रारमटी—जिन्हें पान्दवर्धन और अभिनव ने अर्थवृत्तियां कहा है। (२) काव्य-वृत्तियां : उपनागरिका, परुषा और कोमला (ग्राम्या)-जिन्हें आनन्दवर्धन तथा अभिनव ने शब्दवृत्तियां कहा है। इन्हें अनुप्रासजाति भी कहते हैं। ___ आनन्दवर्धन ने वृत्ति की परिभाषा इस प्रकार की है : व्यवहारो हि वृत्तिरित्युच्यते- अर्थात् व्यवहार या व्यापार का नाम वृत्ति है। अभिनवगुप्त ने इसी की तात्विक व्याख्या करते हुए लिखा है : तस्माद् व्यापारः पुमर्थसाधको वृत्तिः-पुरुषार्थ-साधक व्यापार का नाम ही वृचि है। और स्पष्ट शब्दों में, पात्रों की कायिक, वाचिक और मानसिक विचित्रता से युक्त चेष्टा ही वृत्ति है । इस व्यापार का वर्णन काव्य में सर्वत्र होता है-कोई भी वर्णन व्यापार-शून्य नहीं होता, इसीलिए वृत्ति को काव्य की माता कहा गया है : सर्वेषामेव काव्यानां वृत्तयो मातृकाः स्मृताः । (भरत) यहां वाचिक के साथ ही कायिक और मानसिक चेष्टाओं का भी अन्तर्भाव है इसलिए वृत्ति का रूप शब्दगत और अर्थगत दोनों प्रकार का होता है । आगे चलकर ये दोनों रूप पृथक् हो जाते हैं। आनन्दवर्धन के शब्दों में रसानुगुण अर्थ-व्यवहार भारती, सास्वती श्रादि वृत्तियों का रूप धारण कर लेता है, और रसानुगुण शब्द-व्यवहार उपनागरिका, परुषा और कोमला वृत्तियों का जिनके उद्भावक हैं प्राचार्य उद्भट । उनट ने इन्हें अनुप्रासजाति ही माना है, अतएव उनके मत से ये वृत्तियां वर्ण-व्यवहार मात्र ही है-इनमें पदसंघटना का विचार नहीं है । इन वृत्तियों के स्वरूप के विषय में प्राचार्यों में (१२)
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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