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________________ ३०४ ] कोव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती सूत्र ९ लभेर्गत्यर्थत्वाण्णिच्यणौ कर्तुः कर्मत्वाकर्मत्वे । ५,२, ६ । शत्रूनगमयत् स्वर्ग वेदार्थ स्वानवेदयत् । आगयच्चामृत देवान् वेदमध्यापयद्विधिम् । आसयत् सलिले पृथिवी य. स मे श्रीहरिगति ॥ इसी प्रकार 'शशिभास कुमुदानि विकास लम्भयन्ति' यह प्रयोग किया गया है । इसमें लभ धातु के प्राप्त्यर्थक होने पर भी उसमे गति का प्राधान्य और प्राप्ति की गौणता होने से गत्यर्थक मान कर अण्यन्तावस्था का कर्ता ण्यन्तावस्था मे कर्म हो गया है। दूसरे उदाहरण मे 'सुतरा सित मुनेर्वपु विसारिभि , द्विजावलिव्याजनिगाकराशुभि सितिम्ना लम्भयन् अच्युत शुचिस्मिता वाचमवोचत्' इस दूसरे उदाहरण में 'सितिमा मुनेर्वपु लभते' श्वेतिमा मुनि नारद के शरीर को प्राप्त करती है त कृष्ण प्रेरयति' कृष्ण उसको प्रेरित करते है, इसलिए कृष्ण नारद मुनि के शरीर को शुक्लता से युक्त करते हुए बोले । यहा अण्यन्तावस्या के कर्ता की कर्म सज्ञाहोकर द्वितीया विभक्ति नही हुई है। अपितु कर्ता के उसके कर्तृकरगयोस्तृतीया' इस सूत्र से उसके कर्ता मे तृतीया विभक्ति होती है। यहा कर्मसज्ञा न होने का कारण लभ धातु की गत्यर्थता का न होना है । लभ धातु का साधारण अर्थ तो धातुपाठ के अनुसार प्राप्ति है । परन्तु वह प्राप्ति गतिपूर्वक ही होती है । उसमे कही गति का प्राधान्य और प्राप्ति का अप्राधान्य होता है तथा कही प्राप्ति का प्राधान्य और गति का अप्राधान्य होता है। इनमे से जहा गति का प्राधान्य होता है वहा धातु को गत्यर्थक मान कर 'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ शब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स णौ' इस सूत्र से अण्यन्तावस्था के कर्ता की ण्यन्तावस्था में कर्म सज्ञा होती है। और उसमे द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । और जहा प्राप्ति का प्राधान्य होता है गति गौण होती है वहा लभ धातु को गत्यर्थक नही माना जा सकता है अतएव वहा अण्यन्त अवस्था का कता कर्मसजक नही होता है । वहा कर्ता मे तृतीया विभक्ति होजाती है इस प्रकार लभ धातु के ण्यन्तावस्था में यह दो प्रकार के प्रयोग पाए जाते है। इस वात को ग्रन्थकार अगले सूत्र में कहते है - लभ धातु के गत्यर्थक होने [ और कही गत्यर्थक न होने से णिजन्त अष्टाध्यायी २, ३, १८ । अप्टाध्यायी १,४,५२ ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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