SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र १] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२९७ चेति 'पुमान् स्त्रियाः' इत्येकशेषः । स च न प्राप्नोति । तत्र हि "तल्लक्षणश्वेदेव विशेष' इत्यनुवर्तते । इति तत्रैवकारकरणात् स्त्रीपुंसकृत एव विशेषो भवतीति व्यवस्थितम् । अत्र तु 'पुयोगादाख्यायाम्' इति विशेषान्तरमप्यस्तीति । एतेन इन्द्रौ, भवौ, शवौं इत्यादयः प्रयोगाः प्रत्युक्ताः ॥ १॥ चार्याणामानुक' इस सूत्र से स्त्रीलिंग में ख शब्द से डी प्रत्यय और आनुक का पागम होकर 'रुद्राणी' पद बनता है। ] इस [विग्रह ] में 'पुमान् स्त्रिया' [अष्टाध्यायी १, २, ६७] इस सूत्र से एकशेष हो सकता था। परन्तु वह प्राप्त नहीं होता है। क्योकि उस [ 'पुमान् स्त्रिया' सूत्र ] में [ इससे पहिले के 'वृद्धो यूना तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः' अष्टाध्यायी १, २, ६६ सूत्र से ] 'तल्लक्षणश्चेदेव विशेषः' इसको अनुवृत्ति पाती है। उसमें 'एवकार' के होने से . स्त्रीत्व-पुंस्त्वकृत भेद [ में ] हो [ एकशेष ] होता है । [अन्य किसी प्रकार का अन्तर होने पर एकशेष नहीं होता है ] यह व्यवस्था की गई है । यहा ['रुद्रश्च रुद्राणी' च इस विग्रह म] तो 'पुयोगादाख्यायाम्' इससे [ अष्टाध्यायो ४, १, १८ पुरुष के योग से 'रुद्रस्य पत्नी रुद्राणी प्रयवा 'गोपस्य पत्नी गोपी' इत्यादि के समान केवल स्त्रीत्व नहीं अपितु पत्नीत्व रूप] अन्य विशेषता भी है। '[ इसलिए यहां एकशेष नहीं हो सकता है । अत. एकशेष करके शिव और पार्वती दोनो के लिए 'रुद्रौ' पद का प्रयोग अनुचित है ] । इससे ['रुद्रौ' पद में एकशेष की विवेचना से उसी के समान ] 'इन्द्रौ', 'भवौं', 'शवों" इत्यादि ['इन्द्रवरुण-भव-शर्व' इत्यादि अष्टाध्यायी के ४, १, ४९ सूत्र के आधार पर बने हुए पदो में भी एकशेष करके किए हुए] प्रयोगो का भी खण्डन हो गया। [अर्थात् उनका भी एकशेष करके 'भवो', 'शवौं' आदि प्रयोग नहीं करना चाहिए] ॥१॥ "मिलति', 'विक्लवति', 'क्षपयति' इत्यादि प्रयोग महाकवियो ने किए है। परन्तु इनके मूलभूत धातु धातुपाठ मे नही मिलते है । तव यह प्रयोग कैसे बनते है इस प्रकार की शका हो सकती है। इसका समाधान करने के लिए अगला सूत्र कहते है 'अष्टाध्यायी १, २, ६७॥ प्राटाध्यायी १, २, ३६ । 3-अष्टाध्यायी ४, १, ४८ ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy