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________________ २८०] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [ सूत्र ३३ एभिनिदर्शनैः स्वीयैः परकीयैश्च पुष्कलैः । शब्दवैचित्र्यगर्भयमुपमैव प्रपञ्चिता ॥ अलङ्कारैकदेशा ये मता सौभाग्यमागिनः ।, तेऽप्यलङ्कारदेशीया योजनीयाः कवीश्वरैः ॥ इति श्री काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती पालङ्कारिके चतुर्थेऽधिकरणे तृतीयोऽध्यायः समाप्तञ्चेदमालङ्कारिक चतुर्थमधिकरणम् ॥ सङ्कर, अगागिभाव सङ्कर और एकाश्रयानुप्रवेश सङ्कर तीनो प्रकार के अनेक उदाहरण दिए गये है। ___ इस अधिकरण के अन्त मे अधिकरण का उपसहार करते हुए ग्रन्थकार लिखते है ~~ अपने [ स्वरचित ] तथा बहुत से दूसरो के [ बनाए हुए] इन उदाहरणो के द्वारा, शब्दो के वैचित्र्य से परिपूर्ण [अनेक अलङ्कारों के रूप में ] यह उपमा [ अलङ्कार] का ही [प्रपञ्च ] विस्तार किया है। इन अलङ्कारो के जो [कोई ] भाग [ एकदेश ] सुन्दर [ सौभाग्य भागिनः] हो अलङ्कारदेशीय [ईषदसमाप्तो कल्पकल्पब्देश्यदेशीयरः । अलङ्कारसदृश ] वह भी कवीश्वरों को [अपने काव्यो में ] प्रयुक्त करने चाहिएं ॥ ३४॥ इति श्री काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति में अलङ्कारनिरूपणपरक [पालङ्कारिक ] चतुर्थ अधिकरण में तृतीय अध्याय समाप्त हुआ। और यह मालङ्कारिक चतुर्थ अधिकरण [ भी ] समाप्त हुआ। श्रीमदाचार्यविश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिविरचिताया काव्यालङ्ककारदीपिकायां हिन्दीव्याख्यायां चतुर्थाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः समाप्त : समाप्तञ्चेदमालङ्कारिकं चतुर्थमधिकरणम् ।।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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