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________________ २७०] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र २७ उपमानाक्षेपश्चाक्षेप । ४, ३, २७ ।। उपमानस्याक्षेपः प्रतिपेधः उपमानाक्षेपः । तुल्यकार्यार्थस्य नरर्थक्यविवक्षायाम् यथा तस्याश्चेन्मुखमस्ति सौम्यसुभगं कि पार्वणेनेन्दुना, सौन्दर्यस्य पदं दृशौ यदि च ते किं नाम नीलोत्पलैः । किं वा कोमलकान्तिभिः किसलयैः सत्येव तत्राधरे, हा धातुः पुनरुक्तवस्तुरचनारम्भेष्वपूर्ण प्रहः ॥ मम्मट, विश्वनाथ आदि नवौन आचार्यों ने अपने लक्षणो मे विशेष वात यह कही है कि जिन पदार्थों में एक धर्म का सम्वन्ध वर्णन किया जाय वह सव या तो प्रस्तुत अर्थात् वर्ण्य हो अथवा सव अप्रस्तुत हो । यदि उनमे से कोई पदार्थ प्रस्तुत तथा कोई अप्रस्तुत होगा तो वहा 'तुल्ययोगिता' नही अपितु 'दीपक' अलङ्कार होगा। साहित्यदर्पण मे लिखा है ' पदार्थाना प्रस्तुतानामन्यपा वा यदा भवेत् । __एकधर्माभिसम्वन्ध. स्यात् तदा तुल्ययोगिता ॥ प्रस्तुत पदार्थों के एक धर्माभिसम्वन्धरूप तुल्ययोगिता का उदाहरणअनुलेपनानि कुमुमान्यवला. कृतमन्यव. पतिपु दीपदशाः । समयेन तेन मुचिर गयितप्रतिवोधितस्मरमवोधिपत ॥ इसमे मन्च्या काल का वर्णन है अतएव अनुलेप, कुसुम, अवला, दीपदगा यह सव ही वर्ण्य प्रस्तुत है। उन सव मे प्रबोधन रूप एक धर्म का सम्बन्ध होने मे तुल्ययोगिता अलकार हुआ । अप्रस्तुत पदार्थों के एक धर्माभिसम्बन्धरूप तुल्ययोगिता का उदाहरण तदङ्गमार्दव द्रष्टु. कस्य चित्ते न भासते । ____ मालतीगगभृल्लेखाकदलीना कठोरता ॥ यहा मालती आदि सभी अप्रस्तुत पदार्थो मे कठोरता रूप एकवर्माभिसम्बन्ध होने से तुल्ययोगितालङ्कार है ॥ २६ ॥ उपमान का आक्षेप [प्रतिषेध ] आक्षेप [ अलंकार है। उपमान का आक्षेप अर्थात् प्रतिषेध उपमानाक्षेप [ कहलाता ] है । तुल्य कार्य वाले अर्थ की निरर्थकता की विवक्षा होने पर ! यह आक्षेप अलङ्कार होता है। जैसे ' साहित्यदर्पण १०, ४८॥
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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