SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र १५-१६ } चतुर्थाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२१३ तेन वचनभेदो व्याख्यातः । ४, २, १५ । तेन लिङ्गभेदेन वचनभेदो व्याख्यातः । यथापास्यामि लोचने तस्याः पुष्पं मधुलिहो यथा ॥ १५ ॥ अप्रतीतगुणसादृश्यमसादृश्यम् । ४, २, १६ । अप्रतीतैरेव गुणैर्यत सादृश्यं तदप्रतीतगुणसादृश्यम् । यथा प्रथनामि काव्यशशिनं विततार्थरश्मिम् । काव्यस्य शशिना सह यत् सादृश्यं तदप्रतीतैरेव गुणैरिति । उस [ लिङ्गभेद रूप दोष के निरूपण ] से वचनभेद [ रूप उपमादोष ] को व्याख्या [ भी ] हो गई। उस लिङ्गभेद से वचनभेद को व्याख्या [ भी ] हो गई [अथात् उपमान और उपमेय में यदि वचन का भेद हो तो वहां वचनभेद नामक उपमादोष होता है ] । जैसे भौंरो के समान उस [ नायिका ] के नेत्रो का [पान ] चुम्बन करूगा। यहाँ 'पास्यामि' पद से उपमेय में एकवचन सूचित होता है परन्तु उपमानभूत 'मधुलिह.' पद बहुवचनान्त है। इसलिए उपमेय में एकवचन तथा उपमान मे बहुवचन होने से यहा वचनभेद नामक उपमा-दोष होता है ॥ १५॥ अगले सूत्र में 'प्रसादृश्य' रूप पञ्चम उपमादोष का निरूपण करते है [लोक में] प्रतीत न होने वाले गुणो से सादृश्य [ दिखलाना] असादृश्य [ रूप उपमा-दोष ] है। प्रतीत न होने वाले गुणो से ही जोसादृश्य दिखलाया जावे वह अप्रतीतगुणसादृश्य [ पद का अर्थ हुआ और ] असादृश्य [नामक उपमादोष कहलाता] है। जैसे फैली हुई अर्थ रूप रश्मियो से युक्त काव्य [ रूप ] चन्द्रमा को ग्रथित करता [ बनाता–निर्माण करता है। [इस उदाहरण में ] काव्य का चन्द्रमा के साथ जो सादृश्य [ दिखलाया गया है वह अनुभव में न पाने वाले [अप्रतीतैरेव ] गुणो से हो [ दिखलाया गया ] है इसलिए [ यहां प्रसादृश्य रूप उपमा-दोष है ]
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy