SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१.] काव्यालङ्कारसूत्रवृती [१२-१३ उपमानोपमेययोलिङ्गव्यत्यासो लिङ्गभेद. । ४, २, १२ । ___ उपमानस्योपमेयस्य च लिङ्गयोय॑त्यासो विपर्ययो लिङ्गभेदः । यथा सेन्यानि नद्य इव जग्मुरनगैलानि ॥ १२ ॥ : ष्ट: पुन्नपु सकयो प्रायेण । ४, २, १३ । इस प्रकार हीनत्व तथा अधिकत्व इन दो प्रकार के उपमा-दोषो का निरूपण करने के बाद ग्रन्थकार लिङ्गभेद रूप तृतीय उपमा-दोष का प्रतिपादन अगले सूत्र में करते है। उपमान और उपमेय के लिङ्ग का परिवर्तन लिङ्गभेद [ दोष ] है। उपमान और उपमेय के लिङ्ग का परिवर्तन बदल जाना लिङ्गभेद [उपमा-बोष कहलाता है। जैसे सेनाएं नदियो के समान अबाधित रूप से चलने लगीं। इस उदाहरण में 'सैन्यानि' उपमेय है और 'नद्य' उपमान है । 'अनर्गल गमन' उनका साधारण धर्म है और 'इव' उपमावाचक शब्द है। इन चारो के होने से यह पूर्णोपमा का उदाहरण है परन्तु इसमे उपमेय रूप 'सैन्यानि' पद नपुंसकलिङ्ग का और उपमानभूत 'नद्य' पद स्त्रीलिङ्ग का है। इस लिङ्गभेद हो जाने के कारण यहाँ लिङ्गभेद' नामक उपमा-दोष हो जाता है ॥ १२ ॥ इस प्रकार लिङ्गभेद दोष का साधारण निरूपण किया। परन्तु कही. कही इसका अपवाद भी पाया जाता है अर्थात् इस प्रकार का लिङ्गभेद होने पर भी दोष नही माना जाता है । इस प्रकार के अपवादो को अगले दो सूत्रो में दिखलाते है। पुलिङ्ग और नपुंसक लिङ्ग का [ लिङ्ग विपर्यय ] प्रायः इष्ट होता है। [अर्थात् उपमान और उपमेय में से एक पुलिङ्ग हो और दूसरा नपुंसक लिङ्ग हो इस प्रकार का लिङ्गभेद प्रायः इष्ट होता है अर्थात दोष नहीं माना जाता है।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy