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________________ चतुर्थाधिकरणे प्रथमोऽध्याय शेष सरूपोऽनुप्रास । १, १, ८ । पदमेकार्थ मनेकार्थं च स्थानानियतं तद्विधमचरं च शेषः । सरूपोऽन्येन प्रयुक्तेन तुल्यरूपोऽनुप्रासः । सूत्र ८ ] [ १७७ इस उदाहरण मे 'यतस्तत. ' पद की प्रवृत्ति है । यह पद सार्वविभक्तिक 'सि' प्रत्यय करके बना है। इसमें पहली जगह पञ्चम्यर्थ मे और दूसरी जगह सप्तम्यर्थं में 'तसि' प्रत्यय हुआ है। इसलिए यह 'कारक भेद' का उदाहरण है साक्षात् विभक्ति का प्रयोग न होकर ' तसिल्' प्रत्यय के द्वारा प्रयोग होने से विभक्ति - भेद का उदाहरण नही है । इसी प्रकार ---- सरति सरति कान्तस्ते ललामो ललाम, । यह सुबन्त र तिङन्त पदो की मिश्रित प्रावृत्ति का उदाहरण है । इसमे 'सरति सरति' तथा 'ललामो ललाम' पदो की प्रावृत्ति है । इनमे 'सरति सरति' पदो में से एक 'सरति' पद शतृप्रत्ययान्त 'सरत्' शब्द का सप्तम्यन्त या सति सप्तमी का रूप है और दूसरा तिडन्त का लट् लकार का रूप होने से सुबन्त और तिडन्त की मिथ श्रावृत्ति का उदाहरण है । इसी प्रकार 'ललामो ललाम मे एक 'ललाम . ' पद प्रथमा का एकवचन और दूसरा लट् लकार के उत्तम पुरुष का वहुवचन होने से यह भी सुबन्त तथा तिङन्त पदो की मिथ श्रावृत्ति का उदाहरण है । इन उदाहरणो मे यदि केवल विभक्तिविपरिणाममात्र माने तो ऊपर दिये हुए श्लोक के अनुसार यमकत्व की हानि माननी होगी । परन्तु केवल विभक्ति विपरिणाम न मान कर प्रकृति का भी भेद मानते है तो यमकाद्भुत अलङ्कार होता है । यह यमकत्वहानि और यमकाद्भुत का भेद समझना चाहिये ॥ ७ ॥ इस प्रकार यमक का निरूपण कर चुकने के बाद दूसरे शब्दालङ्कार का निरूपण प्रारम्भ करते है । [ यमक से भिन्न ] अन्य सारूप्य को 'अनुप्रास' कहते है । यमक में स्थान नियत होता है । और प्रावृत्त पदो में भिन्नार्थकता अनिवार्य होती है । इमलिए शेष अनुप्रास से तात्पर्य अनियत स्थान तथा एकार्थ अथवा अनेकार्थक पदो की प्रवृत्ति से है । इसी को वृत्तिकार कहते हैं । एकार्थक और अनेकार्थक [ दोनो प्रकार के ] और अनियत स्थान वाले पद तथा उसी प्रकार के प्रनियत स्थान वाले प्रक्षर शेष [ पद से अभि
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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