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________________ सूत्र ६ ], तृतीयाधिकरणे द्वित्तीयोऽध्यायः [ १४e मनसि च गिरं बध्नन्तीमे किरन्ति न कोकिलाः । इति ॥ ५ ॥ सुगमत्व वाऽवैषम्यमिति । ३, २, ६ । सुखेन गम्यते ज्ञायत इत्यर्थः । यथा'अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि । यथा वा- का स्विदवगुण्ठनवती नातिपरिस्फुटलावण्या | मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् । प्रत्युदाहरणं सुलभम् ॥ ६ ॥ प्रक्रम-भेद [ रूप दोष ] है | [ प्रतएव यहां 'प्रक्रमाभेद' रूप 'समता' श्रर्थगुण के न होने से यह 'समता' गुण का प्रत्युदाहरण है। इसको 'समता' गुण का उदाहरण बनाने के लिए ] द्वितीय चरण को इस प्रकार पढ़ना चाहिए यह कोकिल मन में बोलना चाहते है परन्तु [ ऋतु सन्धि के कारण ] अभी बाहर व्यक्त रूप से बोल नहीं रहे है ॥ ५ ॥ इस 'समता' गुण के लक्षण में जो 'अवैषम्य' पद का प्रयोग किया है उसकी दूसरी प्रकार की व्याख्या अगले सूत्र मे करते हैं । अथवा सुगमता [ को ] प्रवैषम्य [ कहते ] है । [ जो ] सरलता से समझ में आ जावे [ वह सुगम या श्रविषम कहलाता है ] यह अभिप्राय है । जैसे- 'प्रत्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा' इत्यादि । प्रथवा जैसे---- [ वृक्ष के सूखे हुए ] पीले पत्तो के बीच [ नवीन कोमल ] किसलय के समान [ इन रूखे-सूखे ] तपस्वियो के बीच घू ंघट वाली [ अतएव ] जिसका सौन्दर्य स्पष्ट दिखाई नहीं देता ऐसी यह [ शकुन्तला ] कौन है ? प्रत्युदाहरण [ श्रर्थात् सुगमता रूप 'समता' के प्रत्युदाहरण रूप कठिन दुर्ज्ञेय श्लोक ] सुलभ है । [ पाठक उन्हें स्वय समझ सकते है। इसलिए यहां नहीं दिखलाए है ] । कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के पञ्चमप्र में कण्व की श्राज्ञा से जब 'शारगरव' और 'शारद्वत' शकुन्तला को लेकर राजा दुष्यन्त के यहा राजसभा में उपस्थित होते है । उस समय अवगुण्ठनवती प्रर्थात् घू घट काढ हुए शकुन्तला को उन तपस्वियों के साथ देखकर राजा दुष्यन्त की यह उक्ति
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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