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________________ १०२] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती । सूत्र १५ २. लीलाचलच्छवणकुण्डलमापतन्ति । ३. आययुभृङ्गमुखराः शिरःशेखरशालिनः ॥ १४॥ मुक्ताहारशब्दे मुक्ताशब्द. शुद्धे. । २, २, १५ । मुक्ताहारशब्दे मुक्ताशब्दो हारशब्देनैव गतार्थः प्रयुज्यते, शुद्धः प्रतिपत्त्यर्थमिति सम्बन्धः। शुद्धानामन्यरत्नैरमिश्रितानां हारो मुक्ताहारः। यथा झूला झूलने के समय सुन्दरियो के फानो के आभूषण हिल रहे है। [ इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण देते है ] लीला से हिलते हुए श्रवएकुण्डल पर [ भ्रमर प्रादि ] गिरते है । [अथवा लीला से हिलते कुण्डलों वाले या वाली होकर गिरते है या गिरती है ] । यह उदाहरण श्रवणकुण्डल पद मे कुण्डल की श्रवण-सन्निधि कान में पहिने होने की सूचना के लिए प्रयुक्त श्रवण पद के प्रयोग समर्थन के लिए दिया है । परन्तु यहा 'लीला-चलत्' पद से ही उनका कान मे पहिना होना प्रतीत हो सकता है । इसलिए यह उदाहरण अधिक सुन्दर नहीं रहा उसकी अपेक्षा निम्न उदाहरण अच्छा रहेगा अस्याः कर्णावतसेन जित सर्व विभूषणम् । तथैव शोभतेऽत्यन्तमस्याः श्रवणकुण्डलम् ॥ इसके पूर्व धनुर्ध्या आदि सूत्र मे ही कर्णावतंसादि पदों का भी एकत्र ही निर्देश किया जा सकता था उस दशा मे अलग सूत्र बनाने की आवश्यकता न होती । परन्तु प्रयोजन के भेद को दिखाने के लिए इस सूत्र और इसके अगले चार सूत्रों की रचना अलग की गई है। तीसरा उदाहरण देते हैं भृङ्गो के गुञ्जन से युक्त [ मुखरित ] शिर-मौर [शेखर ] वाले [लोग ] पाए। [यहा शेखर के साथ शिरः पद का प्रयोग मौर [शेखर ] को शिर पर स्थिति के वोपन के लिए है ] ॥१४॥ मुक्ताहार [ इस प्रयोग ] में मुक्ता पद [का प्रयोग] शुद्धि [ के बोधन के प्रयोजन ] से हुआ है। 'मुक्ताहार' इस शब्द में मुक्ता शब्द हार शब्द से ही गतार्थ होकर [ भी अलग] प्रयुक्त होता है। [क्योकि मुफ्ता के बने हुए हार को ही हार
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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