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________________ शब्द का प्रयोग न करते हुए भी वे दोनों के साहित्य को ही काव्य का मूल अंग मानते हैं। दोष को वे काव्य के लिए असह्य मानते हैं : इसीलिए सौन्दर्य का समावेश करने के लिए दोष का बहिष्कार पहला प्रतिबन्ध है। गुण काव्य का नित्य धर्म है अर्थात् उसकी स्थिति काव्य के लिए अनिवार्य है। (१) अलङ्कार काव्य का अनित्य धर्म है-उसकी स्थिति वांछनीय है, अनिवार्य नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि वामन का लक्षण निर्दोष नहीं है। लक्षण अतिव्याप्ति और अध्याति दोषों से मुक्त होना चाषिये : उसकी शब्दावली सर्वथा स्पष्ट किन्तु संतुलित होनी चाहिये-उसमें कोई शब्द अनावश्यक नहीं होना चाहिए । इस दृष्टि से, पहले तो वामन का और वामन के अनुकरण पर मम्मट का दोष के प्रभाव को लक्षण में स्थान देना अधिक संगत नहीं है। दोष की स्थिति एक तो सापेक्षिक है, दूसरे, दोष काव्य मे बाधक तो हो सकता है, परन्तु उसके अस्तित्व का सर्वथा निषेध नहीं कर सकता। काणत्व अथवा क्लीवल्ब मनुष्य के व्यक्तित्व की हानि करता है, मनुष्यता का निषेध नहीं करता । इसलिए दोषाभाव को काव्य-लक्षण में स्थान देना अनावश्यक ही है। इसके अतिरिक अलङ्कार की वांछनीयता भी लक्षण का अंग नहीं हो सकती । मनुष्य के लिए अलंकरण वांछनीय तो हो सकता है, किन्तु वह मनुष्यता का अनिवार्य गुण नहीं हो सकता । वास्तव में लक्षण के अन्तर्गत वांछनीय तथा वैकल्पिक के लिए स्थान ही नहीं है। लक्षण में मूल, पार्थक्यकारी विशेषता रहनी चाहिए : भावात्मक अथवा अमावात्मक सहायक गुणों की सूची नहीं। इस दृष्टि से भामह का लक्षण "शब्द-अर्थ का साहित्य कहीं अधिक तत्व-गत तथा मौलिक है। जहां शब्द हमारे अर्थ का अनिवार्य माध्यम बन जाता है वहीं वाणी को सफलता है। यही अभिव्यक्षनावाद का मूल सिद्धान्त है-क्रोचे ने अत्यन्त प्रबल शब्दों में इसी का स्थापन और विवेचन किया है। आस्माभिव्यंजन का सिद्धान्त भी यही है। मौलिक और व्यापक दृष्टि से भामह का लक्षण अत्यन्त शुद्ध और मान्य है । परन्तु इस पर अतिव्याप्ति का आरोप किया जा सकता है, और परवर्ती प्राचार्यों ने किया भी है। आरोप यह है कि यह तो अभिव्यजना का लक्षण हुा-काव्य का नहीं । शब्द और अर्थ का सामंजस्य उक्ति की सफलता है-अभिव्यञ्जना
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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