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________________ मर्यादाओसे बाहर जाकर बात करता है; वह एक प्रकारका निर्लिप्त फकीर और द्रष्टा ही होता है। (पृ० १७) इस दृष्टिसे उसका उत्तरदायित्व कम नहीं होता। उसे अपने समाजकी स्थितिको अपने साथ आगे बढा ले जाना होता है; अर्थात्, उसे कीमते बदलनी होती हैं । अब कीमते बदलनेके दो तरीके हैं। एक तो वह है जो ऑधी-सा है, जिसे 'क्रान्ति' कहते है; दूसरा वह जिसमे लोगोको किसी भी तरह खदेड़ा, कुचला या अप्रेमसे अपनी भूमिपर ज़बर्दस्ती (यानी हिंसाको जगह देकर भी) खींचा नहीं जाता, बल्कि प्रेम और समझावेसे त्याग और भलेपनकी अहानिकर और अहिंसक तथा नम्र और विनीतपद्धतिसे मनवाया जाता है। क्योंकि जहाँ दृढ हृदय झुकता है, वहाँ उस झुकनेके द्वारा क्या उतनी ही दृढताके साथ वह औरोके हृदयको भी नहीं झुकाता ? परन्तु जरूरत सिर्फ इतनी ही होती है कि वह दृढ हृदय इतना प्रेमसे लबालब, करुणासे ओत-प्रोत, इतना अलग एवं ध्येय-मय-विरागपूर्ण हो कि जिसमे रागद्वेषको पास फटकनेका अवसर तक न मिले । यही कठिन और कष्टोसे भरी दूसरी राह जैनेन्द्रने अपने लिए चुनी है । उनका मूल्यान्तरीकरण (=transvaluation) नीदोके समान दुर्द्धर्ष विद्रोह, हिंसा, और जिघासापर नही खडा हे। जहाँ जमाना क्रान्तिके नशेमे कोरे पराये शब्दोके पीछे अपनेको खोनेको तुला है, वहाँ जैनेन्द्रकी यह निष्कपट निष्ठा सराहनीय ही नहीं वरश्च महत्त्वशाली है। इस दृष्टिसे 'प्रगति क्या' यह एक पढनेकी चीज़ है। जैनेन्द्रके विचार-लोकपर वंदनीय गाँधीजीके सिद्धान्तोंका गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहकी सिद्धान्तत्रयीको जैनेन्द्रने, मी जैसे आधारके तौरपर पूरी तरह अपना लिया है । इसकी इष्टानिष्टतापर तर्क करना स्थल और विषयकी दृष्टिसे यहाँ अपेक्षित नहीं । मिसालके लिए कर्मसंबंधी महत्त्वपूर्ण प्रश्न ही ले ले। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके समान उनके द्रव्यानुयोगमें विभेद नहीं और न वे जीनो या पारमिनाइडसके समान सर्व-स्थिति-मय किंवा हेराक्लाइटसकी तरह सर्वगतिमय ही होकर किसी वस्तुके अर्ध सत्यको पकड़कर ही चलते हैं । यहाँ जैनेन्द्रकी 'एक कैदी' कहानीके कुछ वाक्य देनेसे स्पष्टीकरण होगा; " सत्य स्थिर है, घिरा नहीं है, न अनुशासनसे परिबद्ध । काल भी सत्य ही है; काल जो बनने और मिटनेका
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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