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________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान जान जान कर जितना जो मैंने जाना है वह ऊपर कह दिया है। वह एकदम कुछ न जाननेके बराबर हो सकता है। ऐसा हो, तो कृपापूर्वक आप मुझे क्षमा कर दे । शायद, आपकी कृपा के भरोसे ही उसका दुर्लभ उठाकर, ऊपर कुछ अपने मनकी निरर्थक-सी बात कह गया हूँ | " आधुनिक हिन्दी - साहित्यकी समीक्षामे मै नही जा सकूँगा । वह अधूरा है, अपर्याप्त है, पर यह भी निश्चित है कि वह सचेत है और यत्नशील है । वह बराबर बढ़ रहा है, गद्यके क्षेत्रमे वह तेजस्विताकी ओर भी बढ़ चला है । पद्यमे सूक्ष्मताकी ओर अच्छी प्रगति है | हिन्दी - साहित्यमे चहुँ -मुखता बेशक अभी नहीं है । वह 1 इसलिए, कि जीवन ही अभी चहुँओर नही खुला है । पराधीन देशमें राष्ट्रीयता इतनी जरूरी - सी प्रवृत्ति हो जाती है कि वह समूचे जीवनको उसी ओर खींचकर मानो नुकीला बनानेका प्रयास करती है। स्वाधीनताकी ज़रूरत है तो मुख्यतः इसीलिए कि जिंदगी सब तरफकी माँगोंके लिए खुले और फैले । अनिवार्यतया राष्ट्रीय भावकी प्रधानता अपने साहित्यमें रही और अब, जब कि हिन्दी राष्ट्र-भाषा है, 'संभावना है कि उस प्रकारकी साहित्यकी एकांगिता दूर होनेमे कुछ और भी समय लगे । आधुनिक समाजवाद भी साहित्यकी सर्वाङ्गीनताको संपन्न करनेमें विशेष उपयोगी नही हो रहा है । उपाय इसका यही है कि साहित्यकार व्यापक और विस्तृत जीवनकी ओर बढ़े, नगरसे गॉवकी ओर, गाँवसे प्रकृतिकी भोर, प्रकृतिसे परमात्माकी ओर बढ़े । हमारे साहित्यकारको गण-वायु, शुद्ध जीवन और आसमानकी अधिक आवश्यकता है। वह - ९३
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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