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________________ आलोचकक प्रात अन्त तक इतना स्वास्थ्य है कि हरिप्रसन्नको हठात् स्मृतिसे दूर रखना उसके लिए जरूरी नहीं है। प्रत्युत, हरिप्रसन्नके प्रति सदा वह 'घर' अपना ऋण मानेगा और उसकी याद रक्खेगा। असलमें 'घर' और 'बाहर में परस्पर सम्मुखता ही मैं देखता हूँ। उनमे कोई सिद्धान्तगत पारस्परिक विरोध देखकर नहीं चल पाता। खीन्द्र कवि है । अपनी भाव-प्रवणतामें मानवको उसके मानवीय कॉन्टेक्स्टसे उठाकर उसे अतिमानुषिक बना देनेकी उनमे क्षमता है। यह उनकी शैलीकी विशेषता है । यह उनकी दक्षता उपन्यासपाठकके बूतेसे बड़ी चीज़ भी हो सकती है। नित्य नैमित्तिक जीवनके दैनिक व्यापारकी संकीर्णतासे कविके उपन्यासका पात्र सहज उत्तीर्ण है। दुनियाके धरातलसे उठकर कविके हाथों वह दार्शनिक भावनाओके धरातलपर जा उठता है। वहाँ उसके लिए विचरण अधिक बाधाहीन और उसकी संभावनाएँ अधिक मनोरम बनती है। पर, हर किसीको वह सामर्थ्य कब प्राप्त है ? उपन्यासकारको तो कदाचित् वह अभीप्सित भी नहीं। 'सुनीता'के पात्रोके पैरोंको मैं इस धरतीके तलसे ऊँचा नहीं उठा सकता । न वहाँ मेरी क्षमता है, न कांक्षा है। फिर भी, मै उनके मस्तकको धूलमें नहीं लोटने दूंगा,-वे आसमानमें देखेंगे। इस दृष्टिसे सुनीताके पात्रोंका बनना असाधारण भी हुआ है। फिर भी, उनके चित्रणमें साधारणताके सम्मिश्रणकी कमी नहीं है । इससे 'सुनीता' पुस्तक अतिशय भावनात्मक नहीं हो सकी,--उसके अवयवोमें पर्याप्त मात्रामें स्थूल साधारणता है । ___खैर, वह जो हो । याद रखनेकी बात यह है कि हमारा ज्ञान आपेक्षिक है । वह अपूर्ण है। जगत्की विचित्रता उसमें कहाँ
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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