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________________ अनुरूपताके सहारे लेखक अपनेको दुनियाके उन लोगोके निकट और उन्हें अपने निकट पहुँचाना चाहता है। किन्तु, साहित्यकी प्रेरणा आदर्श है । जब तक वह है ( और वह तो सर्वथा सनातन है), तब तक चरित्र आदर्शानुगामी होगे, जगदनुगामी नहीं भी हो सकते हैं। उनका हक है कि वे सामान्य पथपर न चलें, सामान्यतया साधारण न हों, किसी भी परिचित पद्धतिका समर्थन न करे और दुस्साहसिक होकर भी उर्द्धगामी बने । इस स्थलपर वे शब्द दोहराये जा सकते है जो ' सुनीता' पुस्तककी प्रस्तावनामें आ गये है; वे बहुत कामके मालूम होते हैं। '....पुस्तकमे रमे हुए लेखकको जैसे चाहो समझो, किसी पात्रमे वह अनुपस्थित नहीं है और हर पात्र हर दूसरेसे भिन्न है। पात्रोंकी सब बातें लेखककी बातें है, फिर भी, कोई बात उसकी नहीं है। क्योंकि, उसकी कहाँ-वह तो पात्रोंकी है। कहानी सुनाना लेखकका उद्देश्य नहीं । (उन सबका नहीं जो अपने साहित्यमें जीवन-लक्ष्यी है।) इस विश्वके छोटेसे छोटे खण्डको लेकर चित्र बनाया जा सकता है । उस खंडमें सत्यके दर्शन पाये जा सकते है और उस चित्रमें उसके दर्शन कराये भी जा सकते है । जो ब्रह्माण्डमे है वह पिण्डमें भी है ।....थोड़ेमें समग्रताको दिखाना है....।' ___ असल बात उस मॉकीको देना और लेना है जिसको लेकर अक्षर शब्दमें खो गये हैं,-शब्द वाक्योंमें और वाक्य पुस्तकके प्राणोंमें । अपने आपमें वाक्य भी निरर्थक है, शब्द भी निरर्थक हैं, अक्षर भी निरर्थक हैं । वे अपनेमें गलत भी नहीं हो सकते, सही भी नहीं हो सकते । वे वही हो सकते है जो हैं; और वे मात्र जड़ हैं। ५६
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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