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________________ आलोचकके प्रति विवरणको, जहाँ तक हो वहाँ तक, मूल जीवन-तत्त्वके साथ योगयुक्त देखना होगा। पुस्तकमे भी यही बात है । हर बात वहाँ पात्रकी मनोदशाकी अपेक्षामे आशय-युक्त बनती है । पात्रकी मनोदशाको व्यक्त, अर्थात् पुस्तकगत जीवन-तत्त्वको उद्घाटित, करनेके लिए जो आवश्यक नहीं है वह वर्णन परिहार्य है। ऐसा मोह न लेखकको भला, न पाठकको उचित । ' यह और भी लिख दूँ, कैसा अच्छा आइडिया है!अरे ! आगे क्या हुआ ? फिर क्या हुआ ? हमे यह लेखकने बीचमें कहाँ छोड़ दिया !'-इस तरहकी बाते मोहजन्य है । अपने आपमें कुछ उल्लेखनीय नहीं है । जो सर्वाशतः पुस्तकके प्राणके प्रति समर्पित और सम्मुख नहीं है वह वर्णन बहुमूल्य होनेपर भी त्याज्य बनता है। ऐसे बाह्य वर्णनपर लेखक अपनी लुब्ध दृष्टि कैसे डाल सकता है? इस भाँति, स्पष्ट है कि, बड़ीसे बड़ी वस्तु भी अनुपयोगी और छोटीसे छोटी घटना भी व्यक्ति और ग्रंथके जीवन में विराटू-आशय बन सकती है । तुच्छ इस सृष्टिमें कुछ भी नहीं; किन्तु, यह सृष्टि इतनी अछोर, अपार, अनंत है कि यहाँ बड़ीसे बड़ी चीज़ भी अपने आपके गर्वमें उपहासास्पद हो जाती है। ___ यहाँ साहित्यकी मर्यादा भी हम सममें । पुस्तकमें और हमारी आँखोंके सामनेके ठोस जगतमें अन्तर है । पुस्तक दर्पण नहीं है । साहित्य ज्योका त्यों बाज़ारी दुनियाके प्रतिबिम्बको अंकित करनेके लिए नही है। इस दृष्टिसे साहित्य विशिष्टतर है, यह विशिष्टता उसकी मर्यादा भी है । साहित्यके नायक और पात्र दुनियाके आदमीकी तुलना नहीं कर सकते । यहाँ दीन-हीन आदमी भी मन-भरसे ऊँचा तुलता है
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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