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________________ साहित्यकी सचाई ' बाद मैंने सोचा और अब भी सोचता हूँ, कि क्या वह मेरी तुच्छता " न थी ? इस भाँति सामने आपदा और विपदा और निरीह मानवताको पाकर स्वयं कन्नी काटकर बच निकलना होगा क्या ? मै कल्पना करता हूँ कि क्राइस्ट होते, गौतम बुद्ध होते, महात्मा गान्धी होते, तो वे भी क्या वैसा ही व्यवहार करते ? वे भी क्या आँख बचाकर भाग जाते ? मुझे लगता है कि नहीं, वे कभी ऐसा नहीं करते । शायद वे उस कन्याके सिरपर हाथ रखकर कहते मो बेटा, चलो । मुँह-हाथ धो डालो, और देखो यह कपड़ा है, इसे पहिन लो। मुझे निश्चय है कि वे महात्मा और भी विशेषतापूर्वक उस पीड़िता बालाको अपने अन्तस्थ स - करुण प्रेमका दान देते । पर नग्नता हमारे लिए तो अश्लीलता है न ? सत्य हमारे लिए भयंकर है, जो गहन है वह निषिद्ध है, और जो उत्कट है वह बीभत्स । अरे, यह क्या इसीलिए नहीं है कि हम अपूर्ण है, अपनी 1 छोटी-मोटी आसक्तियोंमें बंधे हुए है ! हम क्षुद्र है, हम अनधिकारी है । —मैंने कहा, अनधिकारी । यह अधिकारका प्रश्न बड़ा है। हम अपने साथ झूठे न बनें। अपनेको बहकानेसे भला न होगा। सत्यकोट थामकर हम अपना और परका हित नहीं साध सकते । हम अपनी जगह और अपने अधिकारको अवश्य पहिचानें । अपनी मर्यादा लाँघें नहीं । हठ- पूर्वक सूर्यको देखनेसे हम अन्धे ही बनेंगे; पर, बिना सूर्यकी सहायताके भी हम देख नहीं सकते, यह भी हम सदा याद रक्खें । हम जान लें कि जहाँ देखनेसे हमारी आँखें चकाचौंध में पड़ जाती हैं वहाँ देखनेसे बचना यद्यपि हितकर तो हैं, फिर भी, वहाँ ज्योति वही सत्यकी है और हम शनैः शनैः अधिकाधिक सत्यके सम्मुख होनेका अभ्यास करते चलें । ४३
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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