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________________ विविध प्रश्नोंका समाधान ऐक्य साधे बिना जगतका त्राण नहीं । इससे कामार्थमयी इच्छाओसे ऊँचे उठे बिना काम न चलेगा। अत उपाय यह बना कि हम व्यक्तिशः अपने वैयक्तिक जीवनमे इस प्रकारकी संकीर्ण वृत्तियोको लेकर आगे न बढे । इन वृत्तियोका सहसा लोप तो न होगा, लेकिन इतना हो सकता है कि उन वृत्तियोको लेकर हम सार्वजनिक विक्षोम पैदा न करे । अर्थात् , जब हम क्रोध लोभके वशीभूत हो, तो मानो अपने भीतर सकुचकर अपने कमरेमे अपनेको मूंद ले । अपनेसे बाहर जब हम आवं तब प्रेम-पूर्वक ही वर्तन करे। दूसरे शब्दोमे इसका यह अर्थ होता है कि यो तो हम पूरी तरह निःस्वार्थ नहीं हो सकते, पर स्वार्थको लेकर हम सीमित रहें और सेवा-भावनाको लेकर समाजमें और सार्वजनिक जीवनमे आवें । अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, ये तीन व्रत हमे इस सिद्धान्त-रक्षामे मदद देंगे। प्रश्न-परमात्मा क्या है ? क्या वह निरी कल्पनाका, बुद्धिका, हृदयक स्वनिर्मित विकार नहीं है ? भयकी भावनाओपर समस्त धर्मोंका प्रारम हुआ, यह बात यदि सच है तो अब सुबुद्ध मानवको पुनः उसी भयात आदिम ज्ञान-हीन जन्तुकी ओर मुड़ने और वैसे ही बननेका ही क्या यह परमात्म-पूजा-भाव नहीं है ? ___ उत्तर-परमात्मा क्या है यह पूछते हो? तो सुनो-जो है, परमात्म है। मैं हूँ ? तुम हो? तो हम दोनो जिसमे हैं वह परमात्मा है। हम दोनो जिसमें होकर दो नहीं हैं, एक हैं, वह परमात्मा है। नहीं, परमात्मा विकार नहीं है । उसको छोड़नेसे, हॉ, शेष सब कुछ विकार हो जाता है। विकार इस लिए भी नहीं है कि हमारी सारी कल्पना, हमारी सारी बुद्धि, हमारे सारे हृदयकी शक्तिद्वारा भी वह निर्मित नहीं हुआ। हम उसका निर्माण नहीं कर सकते । कल्पना, बुद्धि, हृदयद्वारा हम उसको ग्रहण ही कर सकते हैं। उसकी प्रतीतिको हम बनाते नहीं है, वह प्रतीति तो हमारे मन-बुद्धिपर हठात् छा जाता है। जो हमारे द्वारा निर्मित है वह बेशक हमसे दूसरेके लिए और हमारे कालसे दूसरे कालके लिए विकार हो जाता है। लेकिन ध्यान रहे कि मनुष्यों अथवा जातियोद्वारा उनकी पूजा भक्ति अथवा, २८१,
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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