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________________ साहित्य सेवीका अहंभाव प्रकार भी यह इस आजके 'आज' की अवगणना है ! ऐसा नहीं है । 'आज' का तो अर्थ ही यह है कि वह कल न रहेगा और यह उस 'आज' को भी मालूम होना चाहिए। उसके पक्ष में यह दावा पेश करना कि नहीं, इस आजके 'आज' को हम तो सनातन तत्त्वकी भाँति सदा कायम रक्खेंगे - यह दावा पहलेसे ही अपने आपमें हारा हुआ है। भूषण आदिके प्रथ मैंने समीक्षाबुद्धिपूर्वक नहीं देखे हैं । वस्तुतः देखे ही नहीं हैं। बस जहाँ-तहाँ कुछ देखा है। उनके किस अंशको रखकर किस अंशको अपने साथसे छूटने देना है, यह तो किसी हिन्दीके शाता विद्वानसे पूछनेकी बात है । प्रश्न - तो आप शायद शिवा बावनीको उड़ा देनेके पक्षमे हैं ? उत्तर - मैंने कहा न, इस बारे में कुछ कहनेका मैं अधिकारी नहीं हूँ । मोह-पूर्वक न मुझे कुछ रखना है न निकालना है। इस प्रश्नका निर्णय निर्मोही वृत्तिसे जो हो कर लेना चाहिए। साहित्य सेवीका अहंभाव प्रश्न --- हम साहित्य-सेवी कैसे बन सकते हैं ? उत्तर - अच्छी बातोंके सोचने और फिर उन अच्छी बातोंके लिखने । अपनेको औरोंमें खोने और दूसरोंको अपनेमें पानेसे । प्रेमकी साधनासे और अहंकारके नाशसे । प्रश्न - लेकिन साहित्यकोंमें तो अहंभाव कुछ विशेष ही पाया जाता है! उत्तर—- यह तो मैं मान लूँगा कि लेख आदि लिखनेवालोंमें अहंभाव हुआ करता है। उसकी पहली वजह यह है कि वे अपनेको पाना चाहते हैं । वे दुनियाके प्रार्थी होकर नहीं जीना चाहते, खुद होकर जीना चाहते हैं । जो बनी हुई मान्यतायें हैं, वे ही उनको मान्य नहीं होतीं । वे उन्हें स्वयं बनानेका कष्ट उठाना चाहते हैं। जबतक उनकी वे मान्यतायें बनती रहती हैं, तबतक लगभग आवश्यक ही है कि वे न झुकनेकी चिन्ता रक्खें । जो सत्य पा लिया गया है, उतनेहीसे उनकी पूर्ति नहीं होती अथवा कहो वे अपनी निजकी साधनाद्वारा भी उसे अपने दिलके भीतर पाना चाहते हैं । वे २७१
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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